चक्रवर्ती राजगोपालाचारी का जीवन परिचय

चक्रवर्ती राजगोपालाचारी का जीवन परिचय, चक्रवर्ती राजगोपालाचारी की जीवनी, Chakravarti Rajagopalachari Biography In Hindi, चक्रवर्ती राजगोपालाचारी भारतीय राजनीति के शिखर पुरुष थे जो राजाजी के नाम से भी जाने जाते हैं। राजगोपालाचारी वकील, लेखक, राजनीतिज्ञ और दार्शनिक थे। वे स्वतन्त्र भारत के द्वितीय गवर्नर जनरल और प्रथम भारतीय गवर्नर जनरल थे। अपने अद्भुत और प्रभावशाली व्यक्तित्व के कारण 'राजाजी' के नाम से प्रसिद्ध महान् स्वतंत्रता सेनानी, समाज सुधारक, गांधीवादी राजनीतिज्ञ चक्रवर्ती राजगोपालाचारी को आधुनिक भारत के इतिहास का 'चाणक्य' माना जाता है। राजगोपालाचारी जी की बुद्धि चातुर्य और दृढ़ इच्छाशक्ति के कारण जवाहरलाल नेहरू, महात्मा गांधी और सरदार पटेल जैसे अनेक उच्चकोटि के कांग्रेसी नेता भी उनकी प्रशंसा करते नहीं अघाते थे।

Chakravarti Rajagopalachari Jeevan Parichay Biography
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उपलब्धि- आधुनिक भारत के इतिहास का 'चाणक्य' माने जाते है राजगोपालाचारी,1954 में इन्हें 'भारत रत्न' से सम्मानित किया गया था।

चक्रवर्ती राजगोपालाचारी का जन्म 10 दिसंबर, 1878 को तमिलनाडु (मद्रास) के सेलम ज़िले के होसूर के पास 'धोरापल्ली' नामक गांव में हुआ था। एक वैष्णव ब्राह्मण परिवार में जन्मे चक्रवर्ती जी के पिता का नाम श्री नलिन चक्रवर्ती था, जो सेलम के न्यायालय में न्यायधीश के पद पर कार्यरत थे। राजगोपालाचारी जी की प्रारम्भिक शिक्षा गांव के ही एक स्कूल से प्राप्त करने के बाद उन्होंने बैंगलोर के सैंट्रल कॉलेज से हाई स्कूल और इंटरमीडिएट की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। इसके बाद मद्रास के प्रेसीडेंसी कॉलेज से बी.ए. और वकालत की परीक्षा उत्तीर्ण की। वकालत की डिग्री पाने के पश्चात् वे सेलम में ही वकालत करने लगे।

अपनी योग्यता और प्रतिभा के बल पर उनकी गणना वहां के प्रमुख वकीलों में की जाने चक्रवर्ती पढ़ने लिखने में तो तेज थे ही, देशभक्ति और समाज सेवा की भावना भी उनमें स्वाभाविक रूप से विद्यमान थी। जिन दिनों वे वकालत कर रहे थे, उन्हीं दिनों वे स्वामी विवेकानंद जी के विचारों से अत्यंत प्रभावित हुए और वकालत के साथ साथ समाज सुधार के कार्यों में भी सक्रिय रूप से रुचि लेने लगे। उनके समाज सेवी कार्यों से प्रभावित होकर जनता द्वारा उन्हें सेलम की म्यूनिसिपल कॉर्पोरेशन का अध्यक्ष चुन लिया गया। इस पद पर रहते हुए उन्होंने अनेक नागरिक समस्याओं का तो समाधान किया ही, साथ ही तत्कालीन समाज में व्याप्त ऐसी सामाजिक बुराइयों का भी जमकर विरोध किया जो उन्हीं के जैसे हिम्मती व्यक्ति के बस की बात थी। सेलम में पहले सहकारी बैंक की स्थापना का श्रेय भी उन्हें ही जाता है।

वर्ष 1915 में गाँधी जी दक्षिण अफ्रीका से लौट कर भारत आये थे और आते ही देश के स्वतंत्रता संग्राम को गति प्रदान करने में जुट गये थे। चक्रवर्ती भी देश के हालात से अनभिज्ञ नहीं थे, वह वकालत में उत्कर्ष पर थे। 1919 में गाँधी जी ने रॉलेक्ट एक्ट के विरुद्ध सत्याग्रह आन्दोलन प्रारम्भ किया। इसी समय राजगोपालाचारी गाँधी जी के सम्पर्क में आये और उनके राष्ट्रीय आन्दोलन के विचारों से प्रभावित हुए। गाँधी जी ने पहली भेंट में उनकी प्रतिभा को पहचाना और उनसे मद्रास में सत्याग्रह आन्दोलन का नेतृत्व करने का आह्वान किया।

उन्होंने पूरे जोश से मद्रास सत्याग्रह आन्दोलन का नेतृत्व किया और गिरफ्तार होकर जेल गये। जेल से छूटते ही चक्रवर्ती ने अपनी वकालत और तमाम सुख सुविधाओं को त्याग दिया और पूर्ण रूप से देश के स्वतंत्रता संग्राम को समर्पित हो गये। सन् 1921 में गाँधी जी ने नमक सत्याग्रह आरंभ किया। इसी वर्ष वह कांग्रेस के सचिव भी चुने गये। इस आन्दोलन के तहत उन्होंने जगजागरण के लिए पदयात्रा की और वेदयासम के सागर तट पर नमक क़ानून का उल्लंघन किया। परिणामस्वरूप उन्हें गिरफ्तार कर पुन: जेल भेज दिया गया। इस समय तक चक्रवर्ती देश की राजनीति और कांग्रेस में इतना ऊँचा क़द प्राप्त कर चुके थे कि गाँधी जी जैसे नेता भी प्रत्येक कार्य में उनकी राय लेते थे। वे स्पष्ट कहते थे 'राजा जी ही मेरे सच्चे अनुयायी हैं।' यद्यपि कई अवसर ऐसे भी आये, जब चक्रवर्ती गाँधी और कांग्रेस के विरोध में आ खड़े हुए, किंतु इसे भी उनकी दूरदर्शिता, उनकी कूटनीति का ही एक अंग समझकर उनका समर्थन ही किया गया।

1930 - 31 में असहयोग आन्दोलन प्रारम्भ किया गया। चक्रवर्ती ने इस आन्दोलन में बढ़ चढ़ कर भाग लिया। वह जेल भी गये, किंतु कुछ मुद्दों पर वे कांग्रेस के बड़े बड़े नेताओं के विरोध में निडरता से आ खड़े हुए। वह अपने सिद्धांतों के आगे किसी से भी किसी प्रकार के समझौते के लिए तैयार नहीं होते थे। वह अकारण ही अपने सिद्धांतों पर नहीं अड़ते थे, प्राय: जिन मसलों पर अन्य नेतागण उनका विरोध करते थे, बाद में वे सहज रूप से उन्हीं मसलों पर राजा जी के दृष्टिकोण से सहमत हो जाते थे। चक्रवर्ती जी की सूझबूझ और राजनीतिक कुशलता का उदाहरण देखने को मिलता है, जब 1931 -32 में हरिजनों के पृथक् मताधिकार को लेकर गाँधी जी और भीमराव अंबेडकर के बीच मतभेद उत्पन्न हो गये थे। एक ओर जहाँ गाँधी जी इस संदर्भ में अनशन पर बैठ गये थे, वहीं अंबेडकर भी पीछे हटने को तैयार नहीं थे। उस समय चक्रवर्ती ने उन दोंनों के बीच बड़ी ही चतुराई से समझौता कराकर विवाद को शांत कराया था।

वह गाँधी जी के कितना निकट थे, इसका पता इस बात से चलता है कि जब भी गाँधी जी जेल में होते थे, उनके द्वारा संपादित पत्र 'यंग इंडिया' का सम्पादन चक्रवर्ती ही करते थे। जब कभी गाँधी जी से पूछा जाता था, ' जब आप जेल में होते हैं, तब बाहर आपका उत्तराधिकारी किसे समझा जाए?' तब गाँधी जी बड़े ही सहज भाव से कहते, 'राजा जी, और कौन?' गाँधी जी और चक्रवर्ती के संबंधों में तब और भी प्रगाढ़ता आ गयी, जब सन् 1933 में चक्रवर्ती जी की पुत्री और गाँधी जी के पुत्र वैवाहिक बंधन में बंध गये।

सन 1937 में हुए कॉंसिलो के चुनावों में चक्रवर्ती के नेतृत्व में कांग्रेस ने मद्रास प्रांत में विजय प्राप्त की। उन्हें मद्रास का मुख्यमंत्री बनाया गया। 1930 में ब्रिटिश सरकार और कांग्रेस के बीच मतभेद के चलते कांग्रेस की सभी सरकारें भंग कर दी गयी थीं। चक्रवर्ती ने भी अपने पद से त्यागपत्र दे दिया। इसी समय दूसरे विश्व युद्ध का आरम्भ हुआ, कांग्रेस और चक्रवर्ती के बीच पुन: ठन गयी। इस बार वह गाँधी जी के भी विरोध में खड़े थे। गाँधी जी का विचार था कि ब्रिटिश सरकार को इस युद्ध में मात्र नैतिक समर्थन दिया जाए, वहीं राजा जी का कहना था कि भारत को पूर्ण स्वतंत्रता देने की शर्त पर ब्रिटिश सरकार को हर प्रकार का सहयोग दिया जाए। यह मतभेद इतने बढ़ गये कि राजा जी ने कांग्रेस की कार्यकारिणी की सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया।

इसके बाद 1942 में 'भारत छोड़ो' आन्दोलन प्रारम्भ हुआ, तब भी वह अन्य कांग्रेसी नेताओं के साथ गिरफ्तार होकर जेल नहीं गये। इस का अर्थ यह नहीं कि वह देश के स्वतंत्रता संग्राम या कांग्रेस से विमुख हो गये थे। अपने सिद्धांतों और कार्यशैली के अनुसार वह इन दोनों से निरंतर जुड़े रहे। उनकी राजनीति पर गहरी पकड़ थी। 1942 के इलाहाबाद कांग्रेस अधिवेशन में उन्होंने देश के विभाजन को स्पष्ट सहमति प्रदान की। यद्यपि अपने इस मत पर उन्हें आम जनता और कांग्रेस का बहुत विरोध सहना पड़ा, किंतु उन्होंने इसकी परवाह नहीं की। इतिहास गवाह है कि 1942 में उन्होंने देश के विभाजन को सभी के विरोध के बाद भी स्वीकार किया, सन् 1947 में वही हुआ। यही कारण है कि कांग्रेस के सभी नेता उनकी दूरदर्शिता और बुद्धिमत्ता का लोहा मानते रहे। कांग्रेस से अलग होने पर भी यह महसूस नहीं किया गया कि वह उससे अलग हैं।

1946 में देश की अंतरिम सरकार बनी। उन्हें केन्द्र सरकार में उद्योग मंत्री बनाया गया। 1947 में देश के पूर्ण स्वतंत्र होने पर उन्हें बंगाल का राज्यपाल नियुक्त किया गया। इसके अगले ही वर्ष वह स्वतंत्र भारत केप्रथम 'गवर्नर जनरल' जैसे अति महत्त्वपूर्ण पद पर नियुक्त किए गये। सन् 1950 में वे पुन: केन्द्रीय मंत्रिमंडल में ले लिए गये। इसी वर्ष सरदार वल्लभ भाई पटेल की मृत्यु होने पर वे केन्द्रीय गृह मंत्री बनाये गये। सन् 1952 के आम चुनावों में वह लोकसभा सदस्य बने और मद्रास के मुख्यमंत्री निर्वाचित हुए। इसके कुछ वर्षों के बाद ही कांग्रेस की तत्कालीन नीतियों के विरोध में उन्होंने मुख्यमंत्री पद और कांग्रेस दोनों को ही छोड़ दिया और अपनी पृथक् स्वतंत्र पार्टी की स्थापना की।

1954 में भारतीय राजनीति के चाणक्य कहे जाने वाले राजा जी को'भारत रत्न' से सम्मानित किया गया। वह विद्वान् और अद्भुत लेखन प्रतिभा के धनी थे। जो गहराई और तीखापन उनके बुद्धिचातुर्य में था, वही उनकी लेखनी में भी था। वह तमिल और अंग्रेज़ी के बहुत अच्छे लेखक थे। 'गीता' और 'उपनिषदों' पर उनकी टीकाएं प्रसिद्ध हैं। उनको उनकी पुस्तक 'चक्रवर्ती थरोमगम' पर 'साहित्य अकादमी' द्वारा पुरस्कृत किया गया। उनकी लिखी अनेक कहानियाँ उच्च स्तरीय थीं। 'स्वराज्य' नामक पत्र उनके लेख निरंतर प्रकाशित होते रहते थे। इसके अतिरिक्त नशाबंदी और स्वदेशी वस्तुओं विशेषकर खादी के प्रचार प्रसार में उनका योगदान महत्त्वपूर्ण माना जाता है। अपनी वेशभूषा से भी भारतीयता के दर्शन कराने वाले इस महापुरुष का 28 दिसम्बर, 1972 को निधन हो गया।

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