वो उड़ती पतंग तो देखो, खुले आसमान में बेखबर,
आवारा अल्हड़, कभी इधर कभी उधर,
उसे क्या खबर, की उसके आसमान के परे,
आसमान कई और भी है, उस जैसे कई और भी है,
लेकिन उसे इसकी फिक्र भी कहाँ, उसे तो बस उड़ना है।
हवाओ के साथ, जाना है, बादलो के यहाँ
उसे क्या पता, उसकी मंजिल कहाँ।
फिर एक डोर भी है, उतनी रंगीन नहीं,
आसमान के रंग में ही रंगी, उस पतंग को टांगे,
उस पर ही टंगी, उसे भी उड़ना है,
लेकिन पतंग के बगैर नहीं, इसलिए बंधी है,
पतंग में खुद को देखती, मुस्कराती हुई।
उसका सहारा बन, खुद पर इठलाती हुई,
वो भी बेखबर, कि दायरे है उसके भी,
वो पतंग भी बेखबर उड़ती ही जाए।
कोई खीचे जो उसे, और लहराए,
बादलो से खेले, उनसे टकराये,
तूफानों में भी फँस, बाहर आ इतराए,
बेखबर है फिर, बारिश से भी,
उसे मालूम ही नही, बादल उसके साथ तो है।
लेकिन साथी नही, कोई साथ भी है,
पर साथ नहीं, दूर खड़ा कही,
थामे उस पतंग की डोर, कभी खिंचता,
कभी ढील देता, पतंग में खुद को वो भी देखता,
कि काश उसका भी एक आसमान हो, कोई डोर थामे उसे भी।
वो भी लहराये बादलों में, हवाओं के साथ,
पर उड़ नही सकता, वो पतंग नहीं, जो पतंग है वो,
चला था यहीं से, जाने को कहाँ, मालूम नहीं,
बस उड़ता रह, चढ़ता रहा, हर पल नयी उड़ान लिए,
ना घर की फ़िक्र, न मंजिल की टोह।
न गैरों का डर, न अपनों का मोह,
दायरे तो थे, उस डोर के, आसमान के,
वो रंगीला तो आज़ाद था, खुद के ख़यालों में ही,
उड़ता ही गया वो, उचाईयों की ओर,
आयी जो फिर आख़री छोर, टीकी रही वो खिंचती डोर।
बुलाया नही उसे अपनी ओर, वो साथ गई, खुद को तोड़,
वो फिर से उड़ा, बेखबर सा ही आज़ाद और भी,
किसी और मंजिल की ओर,
गिरता हुआ, तैरता हुआ, दूर किसी और आसमान में,
पर ये उड़ान आख़िरी नहीं, उड़ेगा फिर से, लिए नई डोर।