चंदबरदाई का जीवन परिचय

चंदबरदाई का जीवन परिचय, चंदबरदाई की जीवनी, Chand Bardai Biography In Hindi, चंदबरदाई का जन्म लाहौर में हुआ था, वह जाति का राव या भाट था। बाद में वह अजमेर-दिल्ली के सुविख्यात हिंदू नरेश पृथ्वीराज का सम्माननीय सखा, राजकवि और सहयोगी हो गया था। इससे उसका अधिकांश जीवन महाराजा पृथ्वीराज चौहान के साथ दिल्ली में बीता था। वह राजधानी और युद्ध क्षेत्र सब जगह पृथ्वीराज के साथ रहा था। उसकी विद्यमानता का काल 13 वीं शती है। चंदवरदाई का प्रसिद्ध ग्रंथ "पृथ्वीराजरासो" है। इसकी भाषा को भाषा-शास्त्रियों ने पिंगल कहा है, जो राजस्थान में ब्रजभाषा का पर्याय है। इसलिए चंदवरदाई को ब्रजभाषा हिन्दी का प्रथम महाकवि माना जाता है। 'रासो' की रचना महाराज पृथ्वीराज के युद्ध-वर्णन के लिए हुई है। इसमें उनके वीरतापूर्ण युद्धों और प्रेम-प्रसंगों का कथन है। अत: इसमें वीर और श्रृंगार दो ही रस है। चंदबरदाई ने इस ग्रंथ की रचना प्रत्यक्षदर्शी की भाँति की है अंत: इसका रचना काल सं. 1220 से 1250 तक होना चाहिए। विद्वान 'रासो' को 16वीं अथवा उसके बाद की किसी शती का अप्रमाणिक ग्रंथ मानते हैं।

Chand Bardai Jeevan Parichay Biography
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चंदबरदाई (जन्म: संवत 1205 तदनुसार 1148 ई० लाहौर वर्तमान में पाकिस्तान में - मृत्यु: संवत 1249 तदनुसार 1191 ई० गज़नी) हिन्दी साहित्य के वीर गाथा कालीन कवि तथा पृथ्वीराज चौहान के मित्र थे। उन्होंने अपने मित्र का अन्तिम क्षण तक साथ दिया। चंदबरदाई को हिंदी का पहला कवि और उनकी रचना पृथ्वीराज रासो को हिंदी की पहली रचना होने का सम्मान प्राप्त है। पृथ्वीराज रासो हिंदी का सबसे बड़ा काव्य-ग्रंथ है। इसमें 10,000 से अधिक छंद हैं और तत्कालीन प्रचलित 6 भाषाओं का प्रयोग किया गया है। इस ग्रंथ में उत्तर भारतीय क्षत्रिय समाज व उनकी परंपराओं के विषय में विस्तृत जानकारी मिलती है, इस कारण ऐतिहासिक दृष्टि से भी इसका बहुत महत्व है। वे भारत के अंतिम हिंदू सम्राट पृथ्वीराज चौहान तृतीय के मित्र तथा राजकवि थे। पृथ्वीराज ने 1165 से 1192 तक अजमेर व दिल्ली पर राज किया। यही चंदबरदाई का रचनाकाल भी था।

इनका जीवन पृथ्वीराज के जीवन के साथ ऐसा मिला हुआ था कि अलग नहीं किया जा सकता। युद्ध में, आखेट में, सभा में, यात्रा में, सदा महाराज के साथ रहते थे और जहाँ जो बातें होती थीं, सब में सम्मिलित रहते थे। यहां तक कि मुहम्मद गोरी के द्वारा जब पृथ्वीराज चौहान को परास्त करके एवं उन्हे बंदी बना करके गजनी ले जाया गया तो ये भी स्वयं को वश मे नही कर सके एवं गजनी चले गये। ऐसा माना जाता है कि कैद मे बंद पृथ्वीराज को जब अन्धा कर दिया गया तो उन्हें इस अवस्था में देख कर इनका हृदय द्रवित हो गया एवं इन्होंने गोरी के वध की योजना बनायी। उक्त योजना के अंतर्गत इन्होंने पहले तो गोरी का हृदय जीता एवं फिर गोरी को यह बताया कि पृथ्वीराज शब्दभेदी बाण चला सकता है। इससे प्रभावित होकर मोहम्मद गोरी ने पृथ्वीराज की इस कला को देखने की इच्छा प्रकट की। प्रदर्शन के दिन चंद बरदायी गोरी के साथ ही मंच पर बैठे। अंधे पृथ्वीराज को मैदान में लाया गया एवं उनसे अपनी कला का प्रदर्शन करने को कहा गया। पृथ्वीराज के द्वारा जैसे ही एक घण्टे के ऊपर बाण चलाया गया गोरी के मुँह से अकस्मात ही "वाह! वाह!!" शब्द निकल पड़ा बस फिर क्या था चंदबरदायी ने तत्काल एक दोहे में पृथ्वीराज को यह बता दिया कि गोरी कहाँ पर एवं कितनी ऊँचाई पर बैठा हुआ है। वह दोहा इस प्रकार था:

चार बाँस चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमान! ता ऊपर सुल्तान है, मत चूके चौहान!!

इस प्रकार चंद बरदाई की सहायता से से पृथ्वीराज के द्वारा गोरी का वध कर दिया गया। इनके द्वारा रचित पृथ्वीराज रासो हिंदी भाषा का पहला प्रामाणिक काव्य माना जाता है।

पृथ्वीराज रासो हिन्दी भाषा में लिखा एक महाकाव्य है जिसमें पृथ्वीराज चौहान के जीवन और चरित्र का वर्णन किया गया है। इसके रचयिता चंद बरदाई पृथ्वीराज के बचपन के मित्र और उनके राजकवि थे और उनकी युद्ध यात्राओं के समय वीर रस की कविताओं से सेना को प्रोत्साहित भी करते थे। ११६५ से ११९२ के बीच जब पृथ्वीराज चौहान का राज्य अजमेर से दिल्ली तक फैला हुआ था।

पृथ्वीराजरासो ढाई हजार पृष्ठों का बहुत बड़ा ग्रंथ है जिसमें ६९ समय (सर्ग या अध्याय) हैं। प्राचीन समय में प्रचलित प्रायः सभी छंदों का इसमें व्यवहार हुआ है। मुख्य छन्द हैं - कवित्त (छप्पय), दूहा(दोहा), तोमर, त्रोटक, गाहा और आर्या। जैसे कादंबरी के संबंध में प्रसिद्ध है कि उसका पिछला भाग बाण भट्ट के पुत्र ने पूरा किया है, वैसे ही रासो के पिछले भाग का भी चंद के पुत्र जल्हण द्वारा पूर्ण किया गया है। रासो के अनुसार जब शहाबुद्दीन गोरी पृथ्वीराज को कैद करके ग़ज़नी ले गया, तब कुछ दिनों पीछे चंद भी वहीं गए। जाते समय कवि ने अपने पुत्र जल्हण के हाथ में रासो की पुस्तक देकर उसे पूर्ण करने का संकेत किया। जल्हण के हाथ में रासो को सौंपे जाने और उसके पूरे किए जाने का उल्लेख रासो में है -

पुस्तक जल्हण हत्थ दै चलि गज्जन नृपकाज।
रघुनाथनचरित हनुमंतकृत भूप भोज उद्धरिय जिमि।
पृथिराजसुजस कवि चंद कृत चंदनंद उद्धरिय तिमि॥

रासो में दिए हुए संवतों का ऐतिहासिक तथ्यों के साथ अनेक स्थानों पर मेल न खाने के कारण अनेक विद्वानों ने पृथ्वीराजरासो के समसामयिक किसी कवि की रचना होने में संदेह करते है और उसे १६वीं शताब्दी में लिखा हुआ ग्रंथ ठहराते हैं। इस रचना की सबसे पुरानी प्रति बीकानेर के राजकीय पुस्तकालय मे मिली है कुल ३ प्रतियाँ है। रचना के अन्त मे प्रथवीराज द्वारा शब्द भेदी बाण चला कर गौरी को मारने की बात भी की गयी है।

पृथ्वीराजरासो रासक परंपरा का एक काव्य है। जैसा इसके नाम से ही प्रकट है, दिल्ली के अंतिम हिंदू सम्राट् पृथ्वीराज के जीवन की घटनाओं को लेकर लिखा गया हिंदी का एक ग्रंथ जो चंद का लिखा माना जाता रहा है। पहले इस काव्य के एक ही रूप से हिंदी जगत्‌ परिचित था, जो संयोग से रचना का सबसे अधिक विशाल रूप था इसमें लगभग ग्यारह हजार रूपक आते थे। उसके बाद रचना का एक उससे छोटा रूप कुछ प्रतियों में मिला, जिसमें लगभग साढ़े तीन हजार रूपक थे। उसके भी बाद एक रूप कुछ प्रतियों में प्राप्त हुआ जिसमें कुल रूपकसंख्या बारह सौ से अधिक नहीं थी। तदनंतर दो प्रतियाँ उसकी ऐसी भी प्राप्त हुई जिनमें क्रमश: चार सौ और साढ़े पाँच सौ रूपक ही थे। ये सभी प्रतियाँ रचना के विभिन्न पूर्ण रूप प्रस्तुत करती थीं। रचना के कुछ खंडों की प्रतियाँ भी प्राप्त हुई हैं, जिनका संबंध उपर्युक्त प्रथम दो रूपों से रहा है। अत: स्वभावत: यह विवाद उठा कि उपर्युक्त विभिन्न पूर्ण रूपों का विकास किस प्रकार हुआ। कुछ विद्वानों ने इससे सर्वथा भिन्न मत प्रकट किया। उन्होंने कहा कि सबसे बड़ा रूप ही रचना का मूल रूप रहा होगा और उसी से उत्तरोत्तर अधिकाधिक छोटे रूप संक्षेपों के रूप में बनाकर प्रस्तुत किए गए होंगे। इन्होंने इसका प्रमाण यह दिया कि रचना का कोई रूप, यहाँ तक कि सबसे छोटा रूप भी, अनैतिहासिकता से मुक्त नहीं है।

किंतु इस विवाद को फिर यहीं पर छोड़ दिया गया और इसको हल करने का कोई प्रयास बहुत दिनों तक नहीं किया गया। इसका प्रथम उल्लेखनीय प्रयास 1955 में हुआ। जब एक विद्वान ने पृथ्वीराज रासो के तीन पाठों का आकार संबंध (हिंदी अनुशीलन, जलन-मार्च 1955) शीर्षक लेख लिकर यह दिखाया कि पृथ्वीराज और उसके विपक्ष के बलाबल को सूचित करनेवाली जो संख्याएँ रचना के तीन विभिन्न पाठों : सबसे बड़े (बृहत्‌), उससे छोटे (मध्यम) और उससे भी छोटे (लघु) में मिलती हैं उनमें समानता नहीं है और यदि समग्र रूप से देखा जाय तो इन संख्याओं के संबंध में अत्युक्ति की मात्रा भी उपर्युक्त क्रम में ही उत्तरोत्तर कम मिलती है। यदि ये पाठ बृहत्‌मध्यमलघुलघुतम क्रम में विकसित हुए होते, तो संक्षेप क्रिया के कारण बलाबल सूचक संख्याओं में कोई अंतर न मिलता। इसलिये यह प्रकट है कि प्राप्त रूपों के विकास का क्रम लघुतमलघुमध्यमबृहत्‌ है। प्रबंध की दृष्टि से यदि हम रचना की उक्तिश्रृंखलाओं और छंदश्रंखलाओं तथा प्रसंगश्रृंखलाओं पर ध्यान दें तो वहाँ भी देखेंगे कि ये श्रृंखलाएँ लघुतमलघुमध्यमबृहत्‌ क्रम में ही उत्तरोत्तर अधिकाधिक टूटी हैं और बीच बीच में इसी क्रम से अधिकाधिक छंद और प्रसंग प्रक्षेपकर्ताताओं के द्वारा रखे गए हैं। किंतु रचना का प्राप्त सबसे छोटा (लघुतम) रूप भी इन श्रृंखलात्रुटियों से सर्वथा मुक्त नहीं है, इसलिये स्पष्ट ज्ञात होता है कि 'रासो' का मूल रूप प्राप्त लघुतम रूप से भी छोटा रहा होगा।

'पृथ्वीराजरासो' की कथा संक्षेप में इस प्रकार है : पृथ्वीराज जिस समय दिल्ली के सिंहासन पर था, कन्नौज के राजा जयचंद ने राजसूय यज्ञ करने का निश्चय किया और इसी अवसर पर उसने अपनी कन्या संयोगिता का स्वयंवर भी करने का संकल्प किया। राजसूय का निमंत्रण उसने दूर दूर तक के राजाओं को भेजा और पृथ्वीराज को भी उसमें सम्मिलित होने के लिये आमंत्रित किया। पृथ्वीराज और उसके सामंतों को यह बात खली कि बहुवचनों के होते हुए भी कोई अन्य राजसूय यज्ञ करे और पृथ्वीराज ने जयचंद का निमंत्रण अस्वीकार कर दिया। जयचंद ने फिर भी राजसूय यज्ञ करना ठानकर यज्ञमंडप के द्वार पर द्वारपाल के रूप में पृथ्वीराज की एक प्रतिमा स्थापित कर दी। पृथ्वीराज स्वभावत: इस घटना से अपमान समझकर क्षुब्ध हुआ। इसी बीच उसे यह भी समाचार मिला कि जयचंद की कन्या संयोगिता ने पिता के वचनों की उपेक्षा कर पृथ्वीराज को ही पति रूप में वरण करने का संकल्प किया है और जयचंद ने इसपर क्रुद्ध होकर उसे अलग गंगातटवर्ती एक आवास में भिजवा दिया है।

इन समाचारों से संतप्त होकर वह राजधानी के बाहर आखेट में अपना समय किसी प्रकार बिता रहा था कि उसकी अनुपस्थिति से लाभ उठाकर उसके मंत्री कैवास ने उसकी एक करनाटी दासी से अनुचित संबंध कर लिया और एक दिन रात को उसके कक्ष में प्रविष्ट हो गया। पट्टराज्ञी को जब यह बात ज्ञात हुई, उसने पृथ्वीराज को तत्काल बुलवा भेजा और पृथ्वीराज रात को ही दो घड़ियों में राजभवन में आ गया। जब उसे उक्त दासी के कक्ष में कैवास को दिखाया गया, उसने रात्रि के अंधकार में ही उन्हें लक्ष्य करके बाण छोड़े। पहला बाण तो चूक गया किंतु दूसरे बाण के लगते ही कैंवास धराशायी हो गया। रातो रात दोनों को एक गड्ढे में गड़वाकर पृथ्वीराज आखेट पर चला गया, फिर दूसरे दिन राजधानी को लौटा। कैंवास की स्त्री ने चंद से अपने मृत पति का शव दिलाने की प्रार्थना की तो चंद ने पृथ्वीराज से यह निवेदन किया। पृथ्वीराज ने चंद का यह अनुरोध इस शर्त पर स्वीकार किया कि वह उसे अपने साथ ले जाकर कन्नौज दिखाएगा। दोनों मित्र कसकर गले मिलते ओर रोए। पृथ्वीराज ने कहा कि इस अपमानपूर्ण जीवन से मरण अच्छा था और उसके कविमित्र ने उसकी इस भावना का अनुमोदन किया। कैंवास का शव लेकर उसकी विधवा सती हो गई।

चंद के साथ थवाइत्त (तांबूलपात्रवाहक) के शेष में पृथ्वीराज ने कन्नौज के लिए प्रयाण किया। साथ में सौ वीर राजपूत सामंतों सैनिकों को भी उसने ले लिया। कन्नौज पहुँचकर जयचंद के दरबार में गया। जयचंद ने उसका बहुत सत्कार किया और उससे पृथ्वीराज के वय, रूप आदि के संबंध में पूछा। चंद ने उसका जैसा कुछ विवरण दिया, वह उसके अनुचर थवाइत्त में देखकर जयचंद कुछ सशंकित हुआ। शंकानिवारणार्थ उसने कवि को पान अर्पित कराने के बहाने अन्य दासियों के साथ एक दासी को बुलाया जो पहले पृथ्वीराज की सेवा में रह चुकी थी। उसने पृथ्वीराज को थ्वाइत्त के वेष में देखकर सिर ढँक लिया। किंतु किसी ने कहा कि चंद पृथ्वीराज का अभिन्न सखा था इसलिये दासी ने उसे देख सिर ढँक लिया और बात वहीं पर समाप्त हो गई। किंतु दूसरे दिन प्रात: काल जब जयचंद चंद के डेरे पर उससे मिलने गया, थवाइत्त को सिंहासन पर बैठा देखकर उसे पुन: शंका हुई। चंद ने बहाने करके उसकी शंका का निवारण करना चाहा और थवाइत्त से उसे पान अर्पित करने का कहा। पान देते हुए थवाइत्त वेशी पृथ्वीराज ने जो वक्र दृष्टि फेंकी, उससे जयचंद को भली भाँति निश्चय हो गया कि यह स्वयं पृथ्वीराज है और उसने पृथ्वीराज का सामना डटकर करने का आदेश निकाला।

इधर पृथ्वीराज नगर की परिक्रमा के लिये निकला। जब वह गंगा में मछलियों को मोती चुगा रहा था, संयोगिता ने एक दासी को उसको ठीक ठीक पहचानने तथा उसके पृथ्वीराज होने पर अपना (संयोगिता का) प्रेमनिवेदन करने के लिये भेजा। दासी ने जब यह निश्चय कर लिया कि वह पृथ्वीराज ही है, उसने संयोगिता का प्रणयनिवेदन किया। पृथ्वीराज तदनंतर संयोगिता से मिला और दोनों का उस गंगातटवर्ती आवास में पाणिग्रहण हुआ। उस समय वह वहाँ से चला आया किंतु अपने सामंतों के कहने पर वह पुन: जानकर संयोगिता का साथ लिवा लाया। जब उसने इस प्रका संयोगिता का अपहरण किया, चंद ने ललकाकर जयचंद से कहा कि उसका शत्रु पृथ्वीराज उसकी कन्या का वरण कर अब उससे दायज के रूप में युद्ध माँग रहा था। परिणामत: दोनों पक्षों में संघर्ष प्रारंभ हो गया।

दो दिनों के युद्ध में जब पृथ्वीराज के अनेक योद्धा मारे गए, सामंतों ने उसे युद्ध की विधा बदलने की सलाह दी। उन्होंने सुझाया कि वह संयोगिता को लेकर दिल्ली की ओर बढ़े और वे जयचंद की सेना को दिल्ली के मार्ग में आगे बढ़ने से रोकते रहें जब तक वह संयोगिता को लेकर दिल्ली न पहुँच जाए। पृथ्वीराज ने इस स्वीकार कर लिया और अनेक सामंतों तथा शूर वीरों यौद्धाओं की बलि ने अनंतर संयोगिता को लेकर दिल्ली गया। जयचंद अपनी सेना के साथ कन्नौज लौट गया। दिल्ली पहुँचकर पृथ्वीराज संयोगिता के साथ, विलासमग्न हो गया। छह महीने तक आवास से बाहर निकला ही नहीं, जिसके परिणामस्वरूप उसके गुरु, बांधव, भत्य तथा लोक में उसके प्रति असंतोष उत्पन्न हो गया। प्रजा ने राजगुरु से कष्ट का निवेदन किया तो राजगुरु चंद को लेकर संयोगिता के आवास पर गया। दोनों ने मिलकर पृथ्वीराज को गोरी के आक्रमण की सूचिका पत्रिका भेजी और संदेशवाहिका दासी से कहला भेजा : 'गोरी रत्ततुअधरा तू गोरी अनुरत्त।' राजा की विलासनिद्रा भंग हुई और वह संयोगिता से विदा होकर युद्ध के लिये निकल पड़ा।

शहाबुद्दीन इस बार बड़ी भारी सेना लेकर आया हुआ था। पृथ्वीराज के अनेक शूर योद्धा और सामंत कन्नोज युद्ध में ही मारे जा चुके थे। परिणामत: पृथ्वीराज की सेना रणक्षेत्र से लौट पड़ी और शाहबुद्दीन विजयी हुआ। पृथ्वीराज बंदी किया गया और गजनी ले जाया गया। वहाँ पर कुछ दिनों बाद शहाबुद्दीन ने उसकी आँखें निकलवा लीं।

जब चंद पृथ्वीराज के कष्टों का समाचार मिला, वह गजनी अपने मित्र तथा स्वामी के उद्धार के लिये अवधूत के वेष में चल पड़ा। वह शहाबुद्दीन से मिला। वहाँ जाने का कारण पूछने पर उसने बताया कि अब वह बदरिकाश्रम जाकर तप करना चाहता था किंतु एक साध उसके जी में शेष थी, इसलिये वह अभी वहाँ नहीं गया था। उसने पृथ्वीराज के साथ जन्म ग्रहण किया था और वे बचपन में साथ साथ ही खेले कूदे थे। उसी समय पृथ्वीराज ने उससे कहा था कि वह सिंगिनी के द्वारा बिना फल के बाध से ही सात घड़ियालों को एक साथ बेध सकता था। उसका यह कौशल वह नहीं देख सका था और अब देखकर अपनी वह साध पूरी करना चाहता था। गोरी ने कहा कि वह तो अंधा किया जा चुका है। चंद ने कहा कि वह फिर भी वैसा संधानकौशल दिखा सकता है, उसे यह विश्वास था। शहाबुद्दीन ने उसकी यह माँग स्वीकार कर ली और तत्संबंधी सारा आयोजन कराया। चंद के प्रोत्साहित करने पर जीवन से निराश पृथ्वीराज ने भी अपना संघान कौशल दिखाने के बहाने शत्रु के वध करने का उसका आग्रह स्वीकार कर लिया। पृथ्वीराज से स्वीकृति लेकर चंद शहाबुद्दीन के पास गया और कहा कि वह लक्ष्यवेध तभी करने को तैयार हुआ है जब वह (शहाबुद्दीन) स्वयं अपने मुख से उसे तीन बार लक्षवेध करने का आह्वाहन करे। शहाबुद्दीन ने इसे भी स्वीकार कर लिया1 शाह ने दो फर्मान दिए, फिर तीसरा उसने ज्यों ही दिया पृथ्वीराज के बाण से विद्ध होकर वह धराशायी हुआ। पृथ्वीराज का भी अंत हुआ। देवताओं ने उस पर पुष्पवृष्टि की और पृथ्वी ने म्लेच्छा गोरी से त्राण पाकर हर्ष प्रकट किया।

'रासो' की ऐतिहासिकता को लेकर, विशेष रूप से जब से प्रसिद्ध विद्वान्‌ और पुरातत्वज्ञ व्यूलर को 'पृथ्वीराज विजय' नामक संस्कृत काव्य की खंडित प्रति मिली, बड़ा विवाद चला है। यह विवाद उसके बृहत्‌ पाठ को लेकर चला है, किंतु रचना का लघुतम पाठ तक ऐसा नहीं है जो अनैतिहासिकता से सर्वथा मुक्त हो। उदाहरणार्थ जयचंद के द्वारा डाहल के कर्ण को दो बार पराजित और बंदी किए जाने का उल्लेख मिलता है, किंतु वह जयचंद से लगभग सवा सौ वर्ष पूर्व हुआ था। जयचंद से हुए कहे गए पृथ्वीराज के युद्ध के संबंध में कोई निश्चित ऐतिहासिका समर्थन अभी तक नहीं प्राप्त हो सका है। पृथ्वीराज अजमेर का शासक था; दिल्ली का शासक कोई गोविंदराय या खांडेराय था जो पृथ्वीराज की ओर से दोनों युद्धों से लड़ा था ओर दूसरे युद्ध में मारा गया था। मुसलमान इतिहासकारों के अनुसार गोरी से पृथ्वीराज के केवल दो युद्ध हुए थे, 'रासो' के अनुसार कम से कम चार युत्र हुए थे¾ जिनमें से तीन में शहाबुद्दीन पराजित हुआ था और बंदी किया गया था। मुसलमान इतिहासकारों के अनुसार पृथ्वीराज पराजित होने के अनंतर सरस्वती के निकट पकड़ा गया और मारा गया था, जबकि 'रासो' के अनुसार वह श्हाबुद्दीन को गजनी में उपर्युक्त प्रकार से मारकर मरा था। ये अनैतिहासिक उल्लेख और विवरण 'पृथ्वीराजरासो' के समस्त रूपों में पाए जाते हैं और इनमें से अधिकरतर उसके ताने बाने के हैं, इसलिये उसके किसी भी पुनर्निमित रूप में भी पाए जाण्‌एँगे। इसलिये यह मानना ही पड़ेगा कि उसका कोई भी रूप पृथ्वीराज की समकालीन रचना नहीं हो सकता है।

प्रश्न यह है कि 'रासो' किस समय की रचना मानी जा सकता है। कुछ समय हुआ, प्रसिद्ध अन्वेषी विद्वान्‌ मुनि जिनविजय को जैन भांडरों में दो 'जैन प्रबंध' संग्रहों की एक एक प्रति मिली, जिनमें 'पृथ्वीराज प्रबंध' और 'जयचंद प्रबंध' सकलित थे। इन प्रबंधों में जो छंद उद्धृत थे उनमें से कुछ 'पृथ्वीराज रासो' में भी मिले, यद्यपि इन उद्धरणों की भाषा में 'रासो' की भाषा की अपेक्षा प्राचीनता अधिक सुरक्षित थी। दोनों प्रतियों में 'पृथ्वीराज प्रबंध' प्राय: अभिन्न था और एक प्रबंधसंग्रह की प्रति सं. 1528 की थी। इनसे मुनिजी ने यह परिणाम निकाला कि चंद अवश्य ही पृथ्वीराज का समकालीन और उसका राजकवि था। किंतु इतने से ही यह परिणाम निकालन तर्कसंमत न होगा। इन तथ्यों के आधार पर हम इतना ही कह सकते हें कि चंद को रचना का कोई न कोई रूप संवत् 1528 के पहले प्राप्त था, जिससे लेकर वे छंद उक्त 'पृथ्वीराजप्रबंध' में उद्धृत किए गए। वह रूप सं. 1528 के कितने पूर्व निर्मित हुआ होगा इसके संबंध में कुछ अनुमान से ही कहा जा सकता है, जिसके लिये निम्नलिखित आधार लिए जा सकते हैं :

(1) दोनों संग्रहों की प्रतियाँ उनके संग्रहकारों के हस्तलेखों में नहीं हैं, इसलिए संग्रहकारों की कृतियों उनकी प्रतियों के पूर्व की होगीं।

(2) दोनों संग्रहों में 'पृथ्वीराजप्रबंध' प्राय: समान पाठ के साथ मिलता है, इसलिये दोनों प्रबंधसंग्रहों में उसे किसी पूर्ववर्ती सामान्य आधारभूत प्रबंधसंग्रह से लिया गया होगा।

(3) जिस काव्य से उपर्युक्त छंद लिए गए होंगे, वह इस सामान्य आधारभूत प्रबंधसंग्रह के पूर्व कभी रचा गया होगा।
उद्धृत छंदों में से एक 'रासो' के लघुतम पाठ की प्रतियों में नहीं मिलता है उसमें कैंवास को 'व्यास' (बुद्धिमान) और वशिष्ठ (श्रेष्ठ) कहा गया है, जबकि 'रासो' के समस्त रूपों में उसके कर्नाटी दासी के साथ अनुचित प्रेम की कथा दी गई है, जिससे प्रकट है कि यह छंद मूल रचयिता उपर्युक्त आधारभूत प्रबंधलेखक को प्राप्त थी, वह प्रक्षिप्त था; रचना का मूल रूप उसके भी पूर्व का होना चाहिए।

यदि मान लिया जाय कि रचना का उक्त प्रक्षिप्त रूप उसके मूल रूप के लगभग 50 वर्ष बाद का होगा, आधारभूत पूर्वज संग्रह उसके भी लगभग 25 वर्ष बाद तैयार किए गए होंगे और प्राप्त प्रतियाँ उक्त दोनों प्रबंधसंग्रहों के तैयार होने के भी लगभग पचीस वर्ष बाद की होंगी, तो मूल काव्यरचना सं. 1400 के लगभग की मानी जा सकती है। समय के इस अनुमान में कहीं पर उदारता नहीं बरती गई है, इसलिये मूल रचना की तिथि इसके बहुत बाद नहीं टल सकती है। रचना की भाषा का जो रूप प्रबंधसंग्रहों के उदाहरणों में तथा रचना के लघुतम रूपों की प्रतियों में मिलता है, वह भी सं. 1400 के आस पास का ज्ञात होता है, इसलिये भाषा का साक्ष्य भी उपर्युक्त परिणाम की पुष्टि करता है।

'पृथ्वीराजरासो' वीर रस का हिंदी का सर्वश्रेष्ठ काव्य है। हिंदी साहित्य में वीर चरित्रों की जैसी विशद कल्पना इस काव्य में मिली वैसी बाद में कभी नहीं दिखाई पड़ी। पाठक रचना भर में उत्साह की एक उमड़ती हुई सरिता में बहता चलता है। कन्नौज युद्ध के पूर्व संयोगिता के अनुराग और विरह तथा उक्त युद्ध के अनंतर पृथ्वीराज संयोगिता के मिलन और केलि विलास के जो चित्र रचना में मिलते हैं, वे अत्यंत आकर्षक हैं। अन्य रसों का भी काव्य में अभाव नहीं है। रचना का वर्णनवैभव असाधारण है; नायक नायिका के संभोग समय का षड्ऋतु वर्णन कहीं कहीं पर संश्लिष्ट प्रकृतिचित्रण के सुंदर उदाहरण प्रस्तुत करता है। भाषाशैली सर्वत्र प्रभावपूर्ण है और वर्ण्य विषय के अनुरूप काव्य भर में बदलती रहती है। रचना के इन समस्त गुणों पर दृष्टिपात किया जाए तो वह एक सुंदर महाकाव्य प्रमाणित होता है और नि:संदेह आधुनिक भारतीय आर्यभाषा साहित्य के आदि युग की विशिष्ट कृति ठहरती है।

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