चन्द्रशेखर आजाद का जीवन परिचय, Chandra Shekhar Azad Biography In Hindi, चन्द्र शेखर आजाद का जन्म 23 जुलाई 1906 को एक आदिवासी गाँव भवरा में हुआ था। इनके पिता पं. सीताराम तिवारी और माता जगरानी देवी थी। इनके पिता पं. सीता राम तिवारी सनातन धर्म के कट्टर प्रेमी थे। इनके पिता का पैतृक गाँव कानपुर था किन्तु उनकी किशोरावस्था कानपुर के उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के बदर गाँव में व्यतीत हुई। तिवारी जी का परिवार ज्यादा सम्पन्न नहीं था। कभी-कभी तो इन्हें कई-कई दिन तक भूखा रहना पड़ता था। उन्नाव जिले में भीषण अकाल पड़ने के कारण अपने किसी रिश्तेदार (हजारी लाल) की मदद से तिवारी जी पत्नी सहित अलीराजपुर आ गये और यहाँ से फिर भवरा गाँव में।
पं. सीताराम की तीन शादियॉ हुई। इनका तीसरा विवाह जगरानी देवी से हुआ। आजाद इन्हीं की पाँचवी संतान थे। आजाद के जन्म से पूर्व इनकी माँ की तीन संतानों की मृत्यु हो गयी थी। इनके एक बड़े भाई सुखदेव भी थे। भील बालकों के बीच पले-बढ़े होने के कारण आजाद बचपन में ही निशाना लगाने में कुशल हो गये थे। बचपन से ही आजाद कुशल निशानची और निर्भीक स्वभाव के थे। आजाद के मन में देश प्रेम की भावना कूट कूट कर भरी थी। 15 साल की आयु में ही ये असहयोग आन्दोलन के समय पहली और आखिरी बार गिरफ्तार हुये। इन्होंने जीते जी अंग्रेजों के हाथों गिरफ्तार न होने की कसम खायी थी और मरते दम तक इस कसम का निर्वहन किया। वह कहते थे आजाद हूँ, आजाद ही रहूँगा। वह अंग्रेजी शासन से घृणा करते थे और उनसे आजादी प्राप्त करने के लिये सशक्त क्रान्ति के मार्ग को पसंद करते थे।
चन्द्रशेखर की प्रारम्भिक शिक्षा घर पर ही प्रारम्भ हुई। पढ़ाई में उनका कोई विशेष लगाव नहीं था। इनकी पढ़ाई का जिम्मा इनके पिता के करीबी मित्र पं. मनोहर लाल त्रिवेदी जी ने लिया। वह इन्हें और इनके भाई (सुखदेव) को अध्यापन का कार्य कराते थे और गलती करने पर बेंत का भी प्रयोग करते थे। चन्द्रशेखर के माता पिता उन्हें संस्कृत का विद्वान बनाना चाहते थे किन्तु कक्षा चार तक आते आते इनका मन घर से भागकर जाने के लिये पक्का हो गया था। ये बस घर से भागने के अवसर तलाशते रहते थे।
इसी बीच मनोहरलाल जी ने इनकी तहसील में साधारण सी नौकरी लगवा दी ताकि इनका मन इधर उधर की बातों में से हट जाये और इससे घर की कुछ आर्थिक मदद भी हो जाये। किन्तु शेखर का मन नौकरी में नहीं लगता था। वे बस इस नौकरी को छोड़ने की तरकीबे सोचते रहते थे। उनके अंदर देश प्रेम की चिंगारी सुलग रहीं थी। यहीं चिंगारी धीरे-धीरे आग का रुप ले रहीं थी और वे बस घर से भागने की फिराक में रहते थे। एक दिन उचित अवसर मिलने पर आजाद घर से भाग गये।
आजाद का प्रराम्भिक जीवन चुनौती पूर्ण था। इनकी पारिवारिक स्थिति अच्छी नहीं थी। पारिवारिक रुप से सम्पन्न न होने के कारण इन्हें दो-दो दिन तक भूखा रहना पड़ता था। चन्द्र शेखर बचपन में बहुत दुर्बल लेकिन बहुत सुन्दर थे। इनका बचपन भीलो के साथ व्यतीत हुआ। यही कारण है कि ये छोटी सी आयु में ही कुशल निशानची बन गये। आजाद बचपन से ही बहुत साहसी और निर्भीक थे। उनका पढ़ने लिखने में ज्यादा मन नहीं था। वे अपने साथियों के साथ जंगलों में निकल जाते और डाकू और पुलिस का खेल खेला करते थे।
आजाद अपनी माँ के बहुत लाड़ले थे। वही वे अपने पिता से बहुत डरते भी थे। एक बार आजाद ने बाग से कुछ फल चुराकर बेच दिये, जिस बाग की इनके पिता रखवाली करते थे। पं. सीताराम बहुत आदर्शवादी थे, जब उन्हें इस बात का पता चला तो उन्होंने आजाद को जितना पीट सकते थे उतना पीटा और जबचन्द्रशेखर की माँ ने इन्हें बचाने की कोशिश की तो उन्हें भी धक्का देकर एक तरफ हटा दिया और चन्द्रशेखर को पीटते-पीटते अधमरा कर दिया। यही कारण था कि आजाद अपने पिता से बहुत अधिक कतराते थे।
पढ़ाई के साथ ही आजाद में देश प्रेम की भी भावना जागृत हो रही थी। काशी में जहाँ कहीं भी संतसंग होता शेखर वहाँ जाते और वीर रस की कहानियों को बड़े प्रेम के साथ सुनते थे। इस दौरान वे पुस्तकालय में जाकर अखबार पढ़ते और राष्ट्रीय हलचलों की सूचना रखने लगे। बनारस में व्यवस्थित हो जाने पर चन्द्रशेखर ने अपने घर सूचना दी और परिवार वालों को निश्चिन्त रहने के लिये कहा। इस सूचना से इनके माता-पिता को कुछ संतोष हुआ।
इन्हीं दिनों असहयोग आन्दोलन अपने जोरों पर था, जगह – जगह धरने और प्रदर्शन हो रहे थे। चन्द्र शेखर के मन में जो देश प्रेम की चिंगारी बचपन से सुलग रहीं थी उसे हवा मिल गयी और उसने आग का रुप ले लिया। उन्होंने भी सन् 1921 में, 15-20 विद्यार्थियों को इकट्ठा करके उनके साथ एक जुलूस निकाला और बनारस की मुख्य गलियों में 'वन्दे मातरम्', 'भारत माता की जय', 'इंकलाब जिन्दाबाद', 'महात्मा गाँधी की जय' के नारों की जय जयकार करते हुये घूमें। इन सब की आयु 13 से 15 वर्ष के बीच थी। छोटे नन्हें मुन्नों का जुलूस बड़े उत्साह और उमंग के साथ आगे बढ़ता जा रहा था, जिसका नेतृत्व स्वंय चन्द्रशेखर कर रहे थे।
जब पुलिस को इस बात की भनक लगी तो इस जुलूस को रोकने के लिये पुलिस की एक टुकड़ी आ गयी, जिसे देखकर कुछ बालक इधर उधर हो गये और नेता सहित एक दो साथी गिरफ्तार कर लिये गये। यही वह समय था जब चन्द्रशेखर पहली और आखिरी बार पुलिस की गिरफ्त में आये। बालक चन्द्रशेखर को कोर्ट में जज के सामने पेश किया गया, किन्तु अब भी उनमें भय का कोई नामों निशान नहीं था। उन्होंने पारसी मजिस्ट्रेट मि. खरेघाट द्वारा पूछे गये सवालों के जबाव इस तरह से दियेः-
मजिस्ट्रेट - तुम्हारा नाम क्या है?
बालक ने निर्भीकता के साथ रौबीली आवाज में कहा - 'आजाद'
मजिस्ट्रेट ने बालक को ऊपर से नीचे तक घूरा और दूसरा सवाल किया,
'तुम्हारे पिता का क्या नाम है'
बालक ने उसी मुद्रा में जबाव दिया - 'स्वतंत्र'
उनके इस जबाव से मजिस्ट्रेट झल्ला गया और क्रोध में भरकर तीसरा सवाल किया -
'तुम्हारा घर कहाँ है'
बालक ने उसी साहस के साथ कहा - 'जेलखाना'
चन्द्रशेखर के इन जबाबों से जज बुरी तरह आग बबूला गया और आजादी के दिवाने इस छोटे से बालक को 20 कोड़े लगाने की कड़ी सजा सुनाई। सजा सुनकर शेखर जरा भी भयभीत नहीं हुये और उन्होंने भारत माता की जयकार लगाई।
कोड़े लगाने के लिये उन्हें जेल लाया गया और उन्हें बाँधा जाने लगा, तो इन्होंने बिना बाँधे कोड़े लगाने को कहा। इस समय वे केवल 15 वर्ष के थे। जब इन पर लगातार बेरहमी से कोड़ो से प्रहार किया जा रहा था तो वे स्थिर खड़े होकर हरेक कोड़े के पड़ने के बाद भारत माँ की जय औरइंकलाब जिन्दाबाद के नारे लगाते रहे। इन्हें जितने कोड़े मारे गये इन्होंने इतने ही जोर से और साहस के साथ नारे लगाये।
आखिरी कोड़े पर वह बेहोश हो गये और फिर भी उन्होंने हार नहीं मानी। उनका सारा शरीर कोड़ो की चोट से भरा था फिर भी बिना किसी दर्द की कराह के वह उठे और अपने घर की तरफ चल दिये। उनके इस साहस को देखकर वहाँ उपस्थित सभी लोगों ने दाँतो तले अंगुली दबा ली।
इस घटना की खबर पूरे बनारस में आग की तरह फैल गयी, और इन्हें देखने के लिये लोगों की भीड़ उमड़ पड़ी। इसी घटना के बाद से ही इनका नाम'आजाद' पड़ा, और इनके सम्मान की तैयारी की जाने लगी। डॉ. सम्पूर्णानन्द द्वारा सम्पादित पत्रिका'मर्यादा' में उनकी प्रशंसा में ‘वीर बालक आजाद’ के नाम से एक लेख भी प्रकाशित हुआ।
आजाद के सार्वजनिक अभिनन्दन की तैयारी की जाने लगी। अभिनन्दन सभा ठसाठस भरी थी। लोग उस वीर बालक को देखने के लिये बहुत ज्यादा लालायित हो रहे थे। आजाद सभा में भारत माता की जय, वन्दे मातरम् आदि नारे लगाते हुये आये, जिससे लोगो में और अधिक उत्साह का संचार हो गया और उन्होंने आजाद की जय के नारे लगाने शुरु कर दिये। आजाद जब सभा में आये तो वह इतने छोटे थे कि लोग उन्हें देख भी नहीं पा रहे थे। इसलिये उन्हें एक मेज पर खड़ा कर दिया गया, लोगों ने फूल मालाओं से उनका स्वागत किया। उनका सारा शरीर फूलों से ढ़क गया। इस समारोह नें उन्होंने जोशीला भाषण दिया। अगले दिन पत्र – पत्रिकाओं में उनके अभूतपूर्व साहस के बहुत से लेख छपे। पूरे बनारस में उनके साहस की चर्चा होने लगी और वे बनारस के लोगों के बहुत प्रिय हो गये थे।
चन्द्रशेखर आजाद एक ऐसे व्यक्तित्व का नाम जिसको सुनते ही ब्रिटिश अधिकारियों के रोंगेटे खड़े हो जाते। वे बिना किसी डर के अपने प्राण हथेली पर रखकर बेखौफ क्रान्तिकारी गतिविधियों को क्रियान्वित करते हुये घूमते थे। ऐसे भारत माँ के सपूत को कौन नहीं जानता। इतना महान व्यक्तित्व होते हुये भी वे बहुत सहज और सरल स्वभाव के थे। व्यक्तिगत रुप से वे कर्तव्यनिष्ठ, सीधे, सच्चे और ईमानदार व्यक्ति थे। उनमें बिल्कुल (लेस मात्र) भी घमंण्ड नहीं था और देश सेवा के लिये उन्होंने अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया।
भगत सिंह इनके सबसे प्रिय सहयोगियों में से एक थे। ये भगत से बहुत प्रेम करते थे और किसी भी हाल में उन्हें खोना नहीं चाहते थे। भगत सिंह असेंम्बली बम कांड के बाद गिरफ्तार किये गये और उन्हें उनके साथियों राजगुरु और सुखदेव के साथ मृत्यु दण्ड की सजा सुनायी गयी। इस दण्ड को रुकवाने के लिये आजाद 27 फरवरी 1931 इलाहबाद पं. नेहरु जी से मिलने के लिये गये, इसी दौरान किसी गुप्तचर (मुख़बिर) की सूचना पर पुलिस ने इस महान क्रान्तिकारी को अल्फ्रेड पार्क में घेर लिया और आत्मसमर्पण करने को कहा। आजाद ने करीब 1 घंटे तक पुलिस सिपाहियों से मुठभेड़ का सामना किया और अपने तमंचे की आखिरी गोली खुद को मारकर आत्महत्या कर ली। इस तरह इस क्रान्ति के देवता ने 27 फरवरी 1931 में स्वतंत्रता संग्राम के हवन में स्वंय की पूर्ण आहुति दे दी।
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