इमानुएल कांट का जीवन परिचय

इमानुएल कांट का जीवन परिचय, Immanuel Kant Biography in Hindi, इमानुएल कांट जर्मनी के पूर्वी प्रशा प्रदेश के अंतर्गत, कोनिगुज़बर्ग (Königsland) नगर में घोड़े का साधारण साज बनानेवाले के घर 22 अप्रैल सन् 1724 ई. को पैदा हुए थे। कोनिगुज़बर्ग शहर आज रूस में है और अब इसका नाम कालिनिनग्राद Kaliningrad है। उसकी प्रारंभिक शिक्षा अपनी माता की देखरेख में हुई थी, जो अपने समय के "पवित्र मार्ग" (पायाटिज्म) नामक धार्मिक आंदोलन से बहुत प्रभावित थी। अतएव, अल्पायु में ही वह धर्मानुमोदित आचरण, सरल, सुव्यवस्थित एवं अध्यवसायपूर्ण जीवन में रुचि रखने लगा था। 16 वर्ष की आयु में, "कॉलेजियम फ़ीडेरिकियेनम" की शिक्षा समाप्त कर, वह कोनिग्ज़बर्ग के विश्वविद्यालय में प्रविष्ट हुआ, जहाँ छह वर्ष (1746 ई. तक) उसने भौतिकशास्त्र, गणित, दर्शन एवं धर्मशास्त्र का अध्ययन किया।

Immanuel Kant Jeevan Parichay Biography
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इमानुएल कांट (1724-1804) जर्मन वैज्ञानिक, नीतिशास्त्री एवं दार्शनिक थे। उसका वैज्ञानिक मत "कांट-लाप्लास परिकल्पना" (हाइपॉथेसिस) के नाम से विख्यात है। उक्त परिकल्पना के अनुसार संतप्त वाष्पराशि नेबुला से सौरमंडल उत्पन्न हुआ। कांट का नैतिक मत "नैतिक शुद्धता" (मॉरल प्योरिज्म) का सिद्धांत, "कर्तव्य के लिए कर्तव्य" का सिद्धांत अथवा "कठोरतावाद" (रिगॉरिज्म) कहा जाता है। उसका दार्शनिक मत "आलोचनात्मक दर्शन" (क्रिटिकल फ़िलॉसफ़ी) के नाम से प्रसिद्ध है। इमानुएल कांट अपने इस प्रचार से प्रसिद्ध हुये कि मनुष्य को ऐसे कर्म और कथन करने चाहियें जो अगर सभी करें तो वे मनुष्यता के लिये अच्छे हों।

विश्वविद्यालय छोड़ने के बाद कांट नौ वर्षों के लिए, कोनिग्ज़बर्ग से 60 मील दूर, जुड्स्केन नामक गाँव में चला गया। वहाँ वह दो तीन परिवारों में अध्यापन कार्य कर अपनी जीविका चलाता और भौतिकशास्त्र तथा दर्शन में स्वाध्याय करता रहा। इस बीच उसके बहुत से लेख तथा लघुग्रंथ प्रकाशित हुए, जिनमें से दो- "जीवित शक्तियों के उचित अनुमान पर विचार" (थाट्स अपॉन द ट्रू एस्टिमेशन ऑव लिविंग फ़ोर्सेज़, 1747 ई.) तथा "सामान्य प्राकृतिक इतिहास एवं आकाशसंबंधी सिद्धांत" (जनरल नैचुरल हिस्ट्री ऐंड थ्योरी ऑव हेवेन, 1755 ई.) विशेष उल्लेख हैं।

इनमें से प्रथम प्रकाशन में उसने रीने दकार्त (1596-1650 ई.) तथा गॉटफ़्रीड विल्हेल्म लीबनित्स (1646-1716 ई.) के सत्ता संबंधी विचारों का तथा दूसरे में न्यूटन तथा लीबनित्स के यांत्रिक एवं प्रयोजनतावादी विचारों का तथा दूसरे में न्यूटन तथा लीबनित्स के यांत्रिक एवं प्रयोजनतावादी विचारों में समन्वय करने का प्रयत्न किया था। उसने "डाक्टर लेजेंस" की उपाधि के निमित्त आवश्यक प्रबंध भी 1755 ई. में प्रस्तुत कर दिया था और कोनिग्ज़बर्ग विश्वविद्यालय ने उसे उक्त उपाधि प्रदान कर उसकी योग्यता प्रमाणित की थी। किंतु उसकी व्यक्तिगत समस्याओं में कोई परिवर्तन न हुआ। विश्वविद्यालय ने उसके नौ वर्ष के परिश्रम से प्रसन्न होकर उसे विशिष्ट व्याख्याता (प्राइवेट डोज़ेंट) नियुक्त कर लिया था, किंतु इस कार्य के लिए उसे वेतन कुछ भी नहीं मिलता था।

कांट ने, विषम परिस्थितियों के बावजूद, 1766 ई. तक विश्वविद्यालय की अवैतनिक रूप से सेवा की। 1758 ई. में उसने तर्क और दर्शन के मुख्य अध्यापक पद के लिए प्रार्थना की थी, किंतु वह असफल रहा। 1766 ई. में उसे अध्यापन के साथ-साथ सहायक पुस्तकालय प्रबंधक भी नियुक्त किया गया और अब उसे दस पौंड वार्षिक वेतन मिलने लगा। चार वर्षों तक कांट ने इस रूप में भी कार्य किया, किंतु उसने अध्ययन चिंतन और लेखन कार्य जारी रखा। "प्राइवेट डोज़ेंट" नियुक्त होने के बाद से 1770ई तक उसके पाँच प्रकरण ग्रंथ प्रकाशित हुए-

(1) न्याय के चार आकारों की मिथ्या सूक्ष्मता (आनॅ द फ़ाल्स सट्लिटी ऑव द फ़ोर सिलोजिस्टिक फ़िगर्स, 1762)
(2) दर्शन में अभावात्मक परिमाण की धारणा के समावेश का प्रयत्न (अटेंप्ट टु इंट्रोडयूस द नोशन ऑव नेगेटिव क्वांटिटी इंटु, फ़िलॉसफ़ी, 1763)
(3) ईश्वर के अस्तित्व का एकमात्र प्रमाण (ओन्ली पॉसिब्ल् प्रूफ़ ऑव द एग्ज़िस्टेंस ऑव गॉड, 1763)
(4) दर्शन के स्वप्नों द्वारा आत्मवादी के स्वप्नों की व्याख्या (ड्रीम्स ऑव ए स्पिरिचुअलिस्ट बाइ द ड्रीम्स ऑव मेटाफ़िज़िक, 1766)
(5) देश की वस्तुओं के भेद के प्रथम आधार पर (ऑन द फ़र्स्ट ग्राउंड ऑव द डिस्टिंक्शन ऑव ऑबजेक्ट्स् इन स्पेस, 1768)।

उपर्युक्त ग्रंथों के शीर्षकों से पता चलता है कि 1755 और 1770 ई. के बीच का समय कांट के विचारों के निर्माण का था। सन् 1770 ई. में प्रकाशित लातीनी स्थापनालेख (डिज़र्टेशन)–"संसार की समझ और बुद्धि के आकार एवं सिद्धांत" (दी मुंदी सेंसिबिलिस एत इंतेलीजिबिलिस फ़ार्मा एत प्रिंसिपिइस) से उसका चिंतन व्यवस्थित रूप में विकसित होता दिखाई देता है। इसी वर्ष, वह कोनिग्ज़बर्ग विश्वविद्यालय में तर्क और दर्शन के उसी अध्यापक पद पर नियुक्त हुआ, जिसके लिऐ उसे 12 वर्ष पूर्व निराश होना पड़ा था। पहले से अब वह चिंतामुक्त भी हो गया था क्योंकि उसे 60 पौंड वार्षिक वेतन मिलने लगा था। उन दिनों इतना वेतन सम्मानित अध्यापकों को ही दिया जाता था। ग्रंथों के प्रकाशन से भी कोई बड़ी धनराशि नहीं प्राप्त होती थी। अपने "क्रिटीक ऑव प्योर रीज़न" से कांट को केवल 30 पौंड आय हुई थी। किंतु, भौतिक सुखों की आकांक्षा न कर, 1796 ई. तक वह सक्रिय रूप से संसार के ज्ञानकोश की अभिवृद्धि के निमित्त प्रयत्न करता रहा।

इन 26 वर्षों में से आदि के 12 वर्ष उसने केवल एक पुस्तक ""शुद्ध बुद्धि की समीक्षा" (क्रिटिक ऑव प्योर रीज़न) के लिखने में व्यतीत किए। उक्त ग्रंथ 1781 ई. में प्रकाशित हुआ था। कांट के प्रौढ़ ग्रंथों में यह सर्वश्रेष्ठ दार्शनिक ग्रंथ माना जाता है। इस काल के अन्य ग्रंथ "प्रत्येक भावी दर्शन की भूमिका" (प्रोलेगोमेना टु एव्री फ़्यूचर मेटाफ़िज़िक, 1783), "नीतिदर्शन की पृष्ठभूमि" (द ग्राउंड वर्क ऑव द मेटाफ़िज़िक्स ऑव मॉरल्स, 1786), "प्राकृतिक विज्ञान के दार्शनिक आधार" (मेटाफ़िज़िकल फ़ाउंडेशंस ऑव नैचुरल साइस, 1787), "व्यावहारिक बुद्धि की समीक्षा" (क्रिटोक ऑव प्रैक्टिकल रीज़न, 1788), "निर्णय की समीक्षा" (क्रिटाक ऑव जजमेंट, 1790), "केवल बुद्धि द्वारा सीमित धर्म" (रिलीजन विदिन द लिमिट्स ऑव मिअर रीज़न, 1793), तथा "शाश्वत शांति पर" (आन एवरलास्टिंग पीस, 1795)।

1796 ई. के बाद भी वह अध्ययन, चिंतन एवं लेखन में व्यस्त रहा किंतु उसके जीवन के ये आठ वर्ष बड़ी दयनीय दशा में व्यतीत हुए। उसकी स्मृति इतनी क्षीण हो गई थी कि उसे छोटी-मोटी बातें भी लिखकर याद रखनी पड़ती थीं। स्वयं अपने घर की देखभाल करने की शक्ति उसमें नहीं थी; विवाह उसने किया नहीं था, किंतु 42 वर्ष के अध्यापन काल में उसने अपने सहयोगियों एवं विद्यार्थियों पर अच्छा प्रभाव डाला था। अतएव मित्रों एवं शिष्यों से उसे अपने जीवन के अंतिम भाग में काफी सहायता एवं सहानुभूति प्राप्त हुई। सन् 1801 ई. के बाद तो वह बहुत ही अशक्त हो गया था, किंतु अंतिम तीन वर्षों में वेसियांस्की नामक उसके शिष्य ने साथ रहकर अहर्निश उसकी देखभाल की।

आश्चर्य की बात है कि इस काल के लिखे हुए कांट के सात ग्रंथ उपलब्ध हैं-
(1) नीतिदर्शन (मेटाफ़िजिक्स ऑव मॉरल्स, 1797)
(2) नैतिक गुण के सिद्धांत के दार्शनिक आधार (मेटाफ़िज़िकल फ़ाउंडेशंस ऑव द थ्योरी ऑव वर्चू, 1796-97)
(3) मानस शक्तियों का अंतविरोध (द कॉन्फ़्लिक्ट ऑव फ़ैकल्टीज़, 1798)
(4) व्यावहारिक दृष्टि से नृशास्त्र (ऐंथ्रपॉलॉजी फ्रांम द प्रैक्टिकल प्वाइंट ऑव व्यू, 1798)
(5) तर्कशास्त्र (लॉजिक, 1800)
(6) भौतिक भूगोल (1802)
(7) शिक्षाशास्त्र (पेडॉगॉजिक्स, 1802)

इतना कार्य करने के बाद 12 फ़रवरी 1804 ई. को कोनिग्ज़बर्ग में उसकी मृत्यु हुई। कांट का व्यक्तिगत जीवन अटल नियमों से जकड़ा हुआ था। प्रात:काल से संध्या तक उसके सभी काम निश्चित समय पर होते थे। भोजन के समय के संलाप के भी नियम थे। पाश्चात्य दार्शनिकों में से अधिकांश भ्रमणशील रहे हैं, किंतु कांट अपने नगर से जीवन भर में अधिक से अधिक साठ मील गया था। फिर भी उसका दृष्टिकोण संकुचित न था। वह केवल बौद्धिक चिंतक न था, उसने सुकरात और पाइथागोरस की भाँति जीवन में अपने दार्शनिक विचारों को स्थान दिया था। हाइने नामक जर्मन कवि ने कांट के दार्शनिक जीवन की प्रशंसा में ऐसी बातें कही हैं जो उसे सनकी सिद्ध करती हैं, किंतु, उसके विचारों ने उत्तरवर्ती दर्शन को इतना प्रभावित किया कि कांट के अध्येता उसे दर्शन में एक नवीन युग का प्रवर्तक मानते हैं।

इमानुएल कांट (1724-1804) के दर्शन, को "आलोचनात्मक दर्शन" (क्रिटिसिज्म), "परतावाद" (ट्रैसेंडेंटलिज्म), अथवा "परतावादी प्रत्ययवाद" (ट्रैसेंडेंटल आइडियलिज्म) कहा जाता है। इस दर्शन में ज्ञानशक्तियों की समीक्षा प्रस्तुत की गई है। साथ ही, 17वीं और 18वीं शताब्दियों के इंद्रियवाद (सेंसेशनलिज्म) एवं बुद्धिवाद (इंटेलेक्चुअलिज्म) की समीक्षा है। विचारसामग्री के अर्जन में इद्रियों की माध्यमिकता की स्वीकृति में कांट इंद्रियवादियों से सहमत था; उक्त सामग्री को विचारों में परिणत करने में बुद्धि की अनिवार्यता का समर्थन करने में वह बुद्धिवादियों से सहमत था; किंतु वह एक का निराकरण कर दूसरे का समर्थन करने में किसी से सहमत न था। कांट के मत में बुद्धि और इंद्रियाँ ज्ञान संबंधी दो भिन्न संस्थान नहीं हैं, बल्कि एक ही सस्थांन के दो विभिन्न अवयव हैं। कांट के दर्शन को "परतावाद" कहने का आशय उसे इंद्रियवाद तथा बुद्धिवाद से "पर" तथा प्रत्येक दार्शनिक विवेचन के लिए आधारभूत मानना है। उसके दर्शन में बुद्धि द्वारा ज्ञेय विषयों का नहीं, स्वयं बुद्धि का परीक्षण किया गया है और बहुत ही विशद रूप में। यूरोपीय दर्शन के विस्तृत इतिहास में, प्रथम और अंतिम बार, कांट के माध्यम से, ज्ञानशक्तियों ने स्वयं की व्याख्या इतने विस्तार से प्रस्तुत की है।

इस प्रकार की व्याख्या का प्रथम निर्देश यूनानी दर्शनकाल में सुकरात से प्राप्त हुआ था। उसने कहा था: "अपने आपको जानो", किंतु उसके बाद अपने आपको जानने के जितने प्रयत्न किए गए सबका पर्यवसान अपने से बाह्म वस्तुओं के ज्ञान में ही होता रहा। आधुनिक काल के प्रारंभ में फ्रांसीसी विचारक देकार्त (1596-1650) ने फिर बलपूर्वक कहा– (1) इंद्रियाँ विश्वास के योग्य नहीं, वे भ्रम उत्पन्न करती हैं; (2) बुद्धि भी निरपेक्ष विश्वास के योग्य नहीं, वह असत् निर्णयों को सत् सिद्ध कर देती हैं; किंतु (3) "मैं विचार करता हूँ, अतएव मैं हूँ", एक ऐसी प्रतीति है, जिसके खंडन का प्रत्येक प्रयत्न उसकी सत्यता का साक्ष्य प्रस्तुत करता है।

पर, किसी विचारक ने उस ज्ञानधिकरण "मैं", अथवा बुद्धि के जटिल संस्थान की छानबीन नहीं की। युग की प्रवृत्तियाँ गणित और भौतिकविज्ञान के प्रभावों से आक्रांत थीं। टाइकोब्राही और कोपरनिकस ने गणित के सहारे सदा से संसार के केंद्र में बैठी हुई पृथ्वी को धकेलकर उसके स्थान पर सूर्य को बैठा दिया था। दूसरी ओर गैलीलियों ने पीसा के झुके हुए स्तंभ की चोटी से पत्थरों को गिराकर, पृथ्वी की द्विविध गति का अनुसंधान किया था। यूरोपीय विचारक इन्हीं दोनों प्रभावों के अंतर्गत दो दलों में बँटकर, ज्ञानसाम्राज्य पर बुद्धि अथवा इंद्रियों के एकाधिकार का समर्थन कर रहे थे। एक ओर जर्मन दार्शनिक गॉटफ़्रीड विल्हेल्म लीबनित्स (1646-1716) के अनुयायी थे, दूसरी ओर अंग्रेज़ विचारक जॉन लॉक (1632-1714) के समर्थक थे। किंतु, युग की दशा देखकर स्काटलैंड के संदेहवादी कहे जानेवाले विचारक डेविड ह्यूम (1711-76) ने फिर पूछा, कारणता (कॉज़ैलिटी) के समर्थन का आधार कहाँ है? घटनाओं के जाल में केवल पूर्वापर संबंध, सहगमन आदि के अतिरिक्त कुछ भी प्रत्यक्ष का विषय नहीं है।

इस बार, कांट की प्रतिभा जागी और उसने बुद्धि का परीक्षण प्रारंभ किया। 1770 ई. से 1781 ई. तक उसने शुद्ध बुद्धि के कार्यों पर चिंतन कर, "क्रिटीक डेर रीनेन वेरनुन्फ़ट" (क्रिटिक आफ प्योर रीजन) के माध्यम से घोषित किया कि शुद्ध बुद्धि ऐंद्रिक प्रदत्तों का संश्लेषण करती हैं। इसीलिए प्रत्येक वैज्ञानिक निर्णय का सूक्ष्म विश्लेषण करने पर बौद्धिक करने एवं ऐंद्रिक दो प्रकार के तत्व उपलब्ध होते हैं। उक्त समीक्षा के प्रथम भाग में उसने ऐंद्रिक बोध का विवेचन करते हुए, इंद्रियों द्वारा बाह्य जगत् से लाई हुई सामग्री और उसके बोध के स्वभाव में, समाविष्ट रूप में, अंतर किया। उसने बताया कि बाह्य वस्तुएँ इंद्रियों पर जो प्रभाव डालती हैं, वह देश और काल के परिच्छेदों से मुक्त होता है, किंतु, ऐंद्रिक बोध इन परिच्छेदों के बिना संभव नहीं। इस प्रकार उसने निर्णीत किया कि ये बोध के दो रूप हैं, जिन्हें प्रत्येक बोधसामग्री को इंद्रियद्वारों में प्रवेश करते ही ग्रहण करना पड़ता है। कांट ने देश और काल को अवांतर आकार स्थिर करते हुए, प्रागनुभवीय (आप्रायोरी) तत्व कहा।

बाह्य जगत् से आई हुई सामग्री में इतना रूपांतर हो चुकने पर बुद्धि का दूसरा विभाग, अर्थबोधविभाग (वरस्टैंड) अपना काम प्रारंभ करता है। इस विभाग के कार्यों का विवेचन बुद्धिसमीक्षा के दूसरे भाग, "पर विश्लेषण" (ट्रैंसेंडेंटल अनालिटिक) में किया गया है। वह देश और कालबोध से युक्त सामग्री पर 12 उपाधियों का आरोप करता है। कांट ने अर्थबोध की 12 उपाधियों को चार समूहों में विभाजित किया। एकता (यूनिटी), बहुता (प्लूरैलिटी) और समष्टि (टोटैलिटी) की उपाधियाँ परिमाणसूचक हैं; सत्ता (रीअलिटी), निषेध (निगेशन) और ससीमता (लिमिटेशन) की उपाधियाँ गुणसूचक हैं; व्याप्ति-अधि-कृतत्व (इन्हेरेंस सब्सिस्टेंस), कारणता निर्भरता (कॉज़ैलिटी डिपेंडेंस) और सामूहिकता (कम्यूनिटी) संबंधसूचक हैं; संभावना असंभावना (पॉसिबिलिटी इंपॉसिबिलिटी), अस्तित्व अनस्तित्व (एक्ज़िस्टेंस नॉनएक्ज़िस्टेंस), अनिवार्यता आकस्मिकता (नेसेसिटी कॉटिजेंसी) प्रकारता (माडलिटी) का बोध कराती हैं।

उपर्युक्त 12 उपाधियों के आरोप के फलस्वरूप 12 प्रकार के बौद्धिक निर्णय उपलब्ध होते हैं–(1) सामान्य (युनिवर्सल), (2) विशिष्ट (पर्टीक्युलर) तथा (3) एकबोधक (सिंग्युलर) परिमाण संबंधी निर्णय हैं, (4) स्वीकृतिबोधक (अफ़र्मेटिव), (5) निषेधबोधक (नेगेटिव) तथा (6) असीमताबोधक (इनफ़िनिट) निर्णय गुणबोध कराते हैं; निरपेक्ष (कैटेगॉरिकल), सापेक्ष (हाइपोथेटिकल) तथा वैकल्पिक (डिस्जंक्टिव) संबंध बोध कराते हैं समस्यामूलक (प्रॉब्लेमैटिक), वर्णनात्मक (एसर्टारिक) तथा संदेहसूचक (एपोडिक्टिक) निर्णय प्रकारता (माडलिटी) का बोध कराते हैं।

इस प्रकार कांट ने स्थिर किया कि बाह्य जगत् का ज्ञान प्राप्त करने में बुद्धि ऐंद्रिक सामग्री में इतना रूपांतर कर देती है कि इंद्रियद्वारों में प्रविष्ट होने के पश्चात् जगत् का रूप पहले जैसा नहीं रह जाता। अतएवं, उसे बुद्धिगत वस्तु और बाह्य वस्तु में भेद करना पड़ा। बुद्धि के अनुशासन से मुक्ति वस्तु की उसने "न्यूमेना" और उक्त अनुशासन में जकड़ी हुई वस्तु का "फ़ेनॉमेना" संज्ञा दी। इस अंतर का तात्पर्य यह दिखाना था कि बौद्धिक रूपांतर के पश्चात् सत्य ज्ञेय वस्तु प्रातिभासिक हो जाती है।

अब तीसरे भाग में, जिसे उसने "परद्वैतिकी" (ट्रैंसेंडेंटल डायलेक्टिक) शीर्षक दिया था, उसने बताया कि इंद्रियों की सहकारिता के अभाव में साधनहीन शुद्ध बुद्धि ईश्वर, आत्मा तथा विश्वसमष्टि का ज्ञान प्राप्त करने में असमर्थ है। किंतु, कांट का उद्देश्य बुद्धि को उक्त विषयों के ज्ञान में अक्षम सिद्ध कर "अज्ञानवाद" (एग्नास्टिसिज़्म) का प्रवर्तन करना नहीं था। अतएव कांट ने सात वर्ष अपने शुद्ध बुद्धि की समीक्षा के अंतिम निर्णय पर अथक चिंतन किया। अंत में उसे बुद्धि के आगे बढ़ने का मार्ग दिखाई दिया। फलत: सन् 1788 ई. में, उसने दूसरी समीक्षापुस्तक प्रकाशित की। यह "व्यावहारिक बुद्धि की समीक्षा" (क्रिटीक डेर प्रैक्टिस्केन वेरनुन्फ़्ट) थी।

सात वर्ष पूर्व शुद्ध के लिए आत्मा, परमात्मा और विश्वसमष्टि के जो अगम क्षेत्र थे, उनमें व्यावहारिक बुद्धि ने, नैतिक अनुभव का पाथेय लेकर, प्रवेश किया। कांट की व्यावहारिक बुद्धि शुद्ध बुद्धि की भाँति बाह्य प्रकृति के तथा अपने स्वभाव के नियमों से सीमित न थी। वह स्वतंत्र बौद्धिक व्यक्ति की बुद्धि थी, जो स्वतं: अपना नियमन करने में समर्थ थी। इसका तात्पर्य यह नहीं कि व्यावहारिक बुद्धि के सिद्धांत से कांट हाब्ज़ (1588-1679) के व्यक्तिवाद का समर्थन करना चाहता था। उसने व्यावहारिक बुद्धि को स्वशासन की स्वतंत्रता प्रदान की थी, किंतु ऐसे नियमों के अनुसार, जिनका अनुसरण विश्व मानव के लिए उचित हो।

कांट के दर्शन के इस स्तर को समझने के लिए एक ओर परमार्थ और व्यवहार का भेद समझने की और दूसरी ओर सैद्धांतिक और नैतिक बुद्धि के भेद को समझने की आवश्यकता है। वह परमार्थ को ज्ञानात्मक व्यापार की परिधि से "पर" मानता था, इसीलिए सैद्धांतिक चिंतन की समीक्षा प्रस्तुत, जो सत्य है, "व्यवहार" में, जो प्रातिभासिक है, परिणत हो जाता है। किंतु, उसकी दृष्टि में नैतिक चिंतन सैद्धांतिक चिंतन से दूरगामी है; क्योंकि वह सैद्धांतिक प्रतिबंधों से मुक्त है। इसलिए, नैतिक चिंतन उन विषयों तक पहुँच सकता है जो सैद्धांतिक चिंतन के लिए दुरूह हैं। कांट जिसे व्यावहारिक बुद्धि कहता है, सचमुच वह नैतिक बुद्धि है, बौद्धिक मानव की स्वतंत्र संकल्प शक्ति है। इसी प्रसंग में कांट ने आत्मा के अमरत्व की और ईश्वर के अस्तित्व की पुन: स्थापना की है। सैद्धांतिक चिंतन इन अस्तित्वों के बिना भी अपना काम चला सकता है, किंतु इनकी कल्पना के बिना नैतिक चिंतन के पैर नहीं जम सकते। अमर आत्मा की स्वीकृति में शाश्वत जीवन की स्वीकृति है; ईश्वर की स्वीकृति कर्मफलदाता की स्वीकृति है। इनका सैद्धांतिक मूल्य भले ही कुछ न हो, किंतु नैतिक मूल्य बहुत बड़ा है। नैतिक चिंतन में बुद्धि का कार्य आचरण की समस्या पर विचार करना है। इसीलिए कांट ने इसे व्यावहारिक बुद्धि कहा था। किंतु वह अनेक बुद्धियों का समर्थन नहीं कर रहा था। वह दिखाना चाहता था कि विषयभेद से बुद्धि भिन्न रूपों में विकसित होती है, भिन्न नियमों के अनुसार कार्य करती है।

प्रकृति के वैज्ञानिक विवेचन में वह इंद्रियों की सहकारिता की अपेक्षा करती है और अपने 14 नियमों का प्रयोग करती है। वहाँ वह किसी ऐसी सत्ता का समर्थन नहीं करती, जो उसके 14 अनुबंधों के अनुशासन में न आ सके। नैतिक चिंतन में प्रवृत्त होते ही वह संकल्प का रूप ले लेती है और कर्म का पोषण करनेवाली सत्ताओं में विश्वास करती है।

कांट की तीसरी समस्या "सुंदर" के आस्वाद में प्रवृत्त बुद्धि की गतिविधि के निरुपण की थी। वह कार्य करने के लिए उसने "निर्णय की समीक्षा" (क्रिटीक डेर उरथील्स्क्रैफ़्ट) प्रस्तुत की। इसके प्रकाश में आने का समय 1790 ई. था। कांट के अनुसार "सुंदर" की ओर उन्मुख होते ही बुद्धि "निर्णय" का रूप ले लेती है। वह "निर्णय" को शुद्ध बुद्धि और व्यावहारिक बुद्धि के बीच की कड़ी मानता था। उसने प्रकृति को शुद्ध बुद्धि का विषय ठहराया था और प्रकृति के सत्य का अवगाहन एवं अनिवार्यता का अनुसंधान उद्देश्य बताया था। व्यावहारिक बुद्धि अथवा संकल्प का विषय "शुभ" (गुड) तथा उद्देश्य स्वतंत्रता का अनुभव था। अब वह निर्णय का विषय रसानुभूति बताता है और इस अनुभूति को अनिवार्यता तथा स्वतंत्रता के मध्य की स्थिति मानता है। स्पष्टत: निर्णय में वह यथार्थ और आदर्श का गठबंधन कराना चाहता था। उसके विचार को समझने के लिए हमें सुंदर संबंधी कल्पना को ज्ञान और संकल्प के बीच रखना होगा। वह "सुदंर" को ज्ञान मात्र की वस्तु नहीं, सुखद वस्तु मानता था, किंतु उस सुख को जो "सुदंर" के प्रेक्षण से उत्पन्न होता है वह संसर्गवर्जित मानता था। उसने "सुंदर" की परिभाषा में गुण, परिमाण और प्रकारता का समावेश तथा संबंध का निषेध किया है। इस प्रकार की रसानुभूति शुद्ध बुद्धि तथा नैतिक आचरण के बिना संभव नहीं। इसीलिए, वह "सुंदर" की कल्पना को ज्ञान और संकल्प के बीच का निर्णय कहता है।

कांट की इस सर्वांगीण समीक्षा का उत्तरवर्ती विचारधाराओं पर जितना प्रभाव पड़ा उतना किसी आधुनिक मत का नहीं। उसके स्वतंत्रता के विचार ने फ़िक्टे, शेलिंग और हेगेल को प्रभावित किया। कांट के ज्ञेय और ज्ञात वस्तु के स्वीभावभेद ने शोपेनहार को प्रभावित किया। लोज़े का प्रयोजनमूलक प्रत्ययवाद (टीलियालॉजिकल आइडियलिज्म) कांट के ही दर्शन का फल था। उसके मनोवैज्ञानिक एवं व्यवहारवादी विचारों को लेकर लैंग, सिमेल और वाइहिंगर ने अपने मतों का विकास किया। कोहेन, नैट्रॉप, रिकर्ट, हसेरल, हाइडेगर, कैसिरर की आलोचना पद्धतियाँ कांट के ही संकेतों पर आधारित हैं। अंग्रेज विचारक केयर्ड, ग्रीन, तथा ब्रैडले ने हेगेल के माध्यम से कांट के प्रभाव को अपने मतों में आत्मसात् किया था। फ्रांस में कांट का प्रभाव देखने के लिए रिनूवियर का अध्ययन किया जा सकता है।

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