शिवानन्द गोस्वामी का जीवन परिचय

शिवानन्द गोस्वामी का जीवन परिचय, शिवानन्द गोस्वामी की जीवनी, Shivanand Goswami Biography In Hindi, भारत के विपुल गौरवशाली और वैविध्यपूर्ण सांस्कृतिक-इतिहास के निर्माण में जिन महापुरुषों का योगदान चिरस्मरणीय रहा है - उनमें आंध्रप्रदेश की लम्बी विद्वत-परम्परा की एक सुदृढ़ कड़ी के रूप में सत्रहवी शताब्दी के तैलंग ब्राह्मण, दार्शनिक-कवि तंत्र-चूड़ामणि शिवानन्द गोस्वामी (सं. १७१०-१७९७) का सांस्कृतिक और साहित्यिक योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण है। उत्तर भारतीय आन्ध्र-तैलंग-भट्ट-वंशवृक्ष के विवरणानुसार "तैलंग ब्राह्मणों के आत्रेय गोत्र में कृष्ण-यजुर्वेद के तैत्तरीय आपस्तम्ब में मूलपुरुष श्रीव्येंकटेश अणणम्मा थे"- जिनकी छठी पीढ़ी में जगन्निवासजी (प्रथम) के परिवार में शिवानन्द गोस्वामी के रूप में एक ऐसे विलक्षण विद्वान ने जन्म लिया जिनके तप, साधना, ज्ञान, शाक्त-भक्ति, तंत्र-सिद्धि और अध्यवसाय से प्रभावित हो कर काशी, चंदेरी, जयपुर, बीकानेर, ओरछा आदि राज्यों के तत्कालीन नरेशों ने इन्हें न केवल राज-सम्मानस्वरूप बड़ी-बड़ी जागीरें ही भेंट कीं बल्कि अपने कुलगुरु और प्रथमपूज्य के रूप में आजीवन अपने साथ रख कर अपने-अपने राज्यों के सम्मान में श्रीवृद्धि भी की।

Shivanand Goswami Jeevan Parichay Biography
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 ऐतिहासिक स्रोतों के अनुरूप शिवानन्द गोस्वामी तक का वंशवृक्ष कुछ इस प्रकार उपलब्ध होता है -

श्रीव्येंकटेश अन्न्म्मा → श्रीसमर पुंगव दीक्षित → श्रीतिरुमल्ल्ल दीक्षित → श्रीश्रीनिकेतन (प्रथम) → श्रीश्रीनिवास → श्रीजगन्निवास (प्रथम) → श्रीशिवानन्द गोस्वामी (जो बाद में 'शिरोमणि भट्ट' के नाम से भी विख्यात हुए)

शिवानन्द गोस्वामी, शिरोमणि भट्ट (अनुमानित काल : संवत् १७१०-१७९७) तंत्र-मंत्र, साहित्य, काव्यशास्त्र, आयुर्वेद, सम्प्रदाय-ज्ञान, वेद-वेदांग, कर्मकांड, धर्मशास्त्र, खगोलशास्त्र-ज्योतिष, होरा शास्त्र, व्याकरण आदि अनेक विषयों के जाने-माने विद्वान थे। इनके पूर्वज मूलतः तेलंगाना के तेलगूभाषी उच्चकुलीन पंचद्रविड़ वेल्लनाडू ब्राह्मण थे, जो उत्तर भारतीय राजा-महाराजाओं के आग्रह और निमंत्रण पर राजस्थान, मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश और उत्तर भारत के अन्य प्रान्तों में आ कर कुलगुरु, राजगुरु, धर्मपीठ निर्देशक, आदि पदों पर आसीन हुए। शिवानन्द गोस्वामी त्रिपुर-सुन्दरी के अनन्य साधक और शक्ति-उपासक थे। एक चमत्कारिक मान्त्रिक और तांत्रिक के रूप में उनकी साधना और सिद्धियों की अनेक घटनाएँ उल्लेखनीय हैं। श्रीमद्भागवत के बाद सबसे विपुल ग्रन्थ सिंह-सिद्धांत-सिन्धु लिखने का श्रेय शिवानंद गोस्वामी को है।"

शिवानन्द गोस्वामी अपने यशस्वी पिता के दो अन्य पुत्रों-श्री जनार्दन गोस्वामी (प्रथम) और श्रीचक्रपाणि से बड़े थे। ऐतिहासिक संस्कृत ग्रंथों- 'मुहूर्तरत्न' एवं 'सभेदा आर्यासप्तशती' (रचनाकाल सन १६८८ ईस्वी) में शिवानन्द के द्रविड-कुल का 'कवितामय' परिचय कुछ यों मिलता है - " भारतवर्ष के दक्षिण स्थित 'द्रविड़' प्रदेश में समस्त पापों का नाश करने वाली पावन नदी पेन्ना (वेना) के किनारे पाणमपट्ट नगर में निवास करते आत्रेय गोत्र के परिवार में आगम निगम रहस्य और वेद-वेदांगों के ज्ञाता जो चूड़ान्त विद्वान थे, उन्होंने शास्त्रार्थों में अपने समय के अनेक उद्भट विद्वानों को 'पराजित' कर उन्हें अपना शिष्यत्व ग्रहण कराया था। उसी आत्रेय कुल की यशोपताका, नदियों और सागरों के पार फ़ैलाने वाले इस कुल में जन्मे जगन्निवासजी को बुंदेलखंड नरेशों ने आमंत्रित किया था और इनसे 'दीक्षा' ग्रहण कर वे नरेश उनके शिष्य बने थे। इन्हीं प्रतापी विद्वान जगन्निवासजी के तीन पुत्र हुए- (सबसे बड़े)- श्रीशिरोमणि भट्ट (शिवानन्द), (तत्पश्चात) श्रीजनार्दन और (अंत में) श्रीचक्रपाणि." 'सभेदा आर्यासप्तशती' में ही लिखा है- " श्रीनिवास गोस्वामी के पुत्र जगन्निवास के ज्येष्ठ पुत्र 'शिरोमणि' नाम से विख्यात हुए जो विद्यावंत, संत-प्रकृति के त्रयोगजा-वृत्ति के थे और जो अपने असाधारण पांडित्य के बल पर समस्त पंडित-समाज में समादृत हुए..."

शिवानंदजी के पितामह श्री श्रीनिवास भट्ट (प्रथम) दक्षिण से आये थे। अपनी युवावस्था में उन्होंने तंत्रशास्त्र और 'श्रीविद्या' की दीक्षा जालंधर-पीठ के अधिपति द्रविड़ क्षेत्र के मनीषी देशिकेन्द्र सच्चिदानंद सुन्दराचार्य से ली थी- गुरु ने इन्हें तब संवत १६३० में 'गोस्वामी' की उपाधि दी। दीक्षा के उपरांत इनका नया नाम गोस्वामी विद्यानन्द्नाथ पड़ा| ललिता की अर्चा में, श्रीविद्या में निरत हो जाने से इन्हीं का तीसरा नाम ललितानन्दनाथ गोस्वामी भी है। अतः तेलंगाना से आये इन आत्रेय ब्राह्मणों में 'गोस्वामी' कोई जातिसूचक शब्द नहीं, विद्वत्ता के लिए दी गई उपाधि है। इसके तीस वर्ष बाद में, संवत १६६० में महाप्रभु वल्लभाचार्य के योग्य पुत्र गुसाईं श्री विट्ठलनाथ जी को भी अकबर के एक फरमान से 'गोस्वामी' की जो उपाधि मिली वह आज तक अपने नाम के साथ पुष्टिमार्ग के संप्रदाय के आचार्य और उनके वंशज लगाते हैं।) इस तरह 'गोस्वामी' सरनाम अलग अलग सन्दर्भों में मथुरास्थ और गोकुलस्थ- दोनों तैलंग-ब्राह्मणों के लिए प्रचलित हुआ।

शिवानन्द गोस्वामी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर विचार करने से पहले इनके कुछ पूर्वजों के सांस्कृतिक-अवदान की संक्षिप्त चर्चा भी प्रसंगवश ज़रूरी है ताकि यह ज्ञात हो सके इनके पूर्वजों की जो अटूट-विद्वत-परंपरा आन्ध्रप्रदेश में चली आयी थी, उत्तर-भारत में इन वंशजों के आगमन पर भी अक्षुण्ण रही और प्रायः सभी प्रवासी-आंध्र पंडितों ने अपने वैदुष्य और अध्यवसाय से तत्कालीन उत्तर-भारतीय रजवाड़ों में 'कुलगुरु' या 'राजगुरु' के रूप निवास करते हुए प्राकृत, संस्कृत-साहित्य, ज्योतिषशास्त्र, संगीत, चित्रकला और तंत्र-साहित्य आदि के गूढ़ ज्ञान-भंडार की श्रीवृद्धि की।

श्री व्येंकटेश अणम्मा की दूसरी पीढ़ी में शास्त्रार्थ-विशारद श्रीसमरपुंगव दीक्षित हुए थे, कहा जाता है जिन्होंने अश्वमेध-यज्ञ तक करवाया था और 'अद्वैत-विद्यातिलकम' और 'यात्रा-प्रबंध' जैसे ग्रन्थ लिखे थे। विश्वविख्यात विद्वान गोपीनाथ कविराज की भूमिका के साथ ब्रह्मसूत्र की व्याख्या का यह ग्रन्थ 'अद्वैत-विद्यातिलकम' १९३० में गवर्मेंट संस्कृत लाइब्रेरी, काशी से प्रकाशित हुआ है। श्रीतिरुमल्ल दीक्षित ने 'योग-तरंगिनी', 'पथ्यापथ्य-निर्णय', श्रीनिकेतन भट्ट ने 'यशस्तिलक चम्पू', श्रीनिवास भट्ट ने सं. १५५३ में रची अपनी कृति 'शिवार्चन-चन्द्रिका', 'सौभाग्यरत्नाकर', 'चंडी-समयानुक्रम', 'श्रीनिवास चम्पू', 'त्रिपुरसुन्दरी पद्धति', 'सौभाग्य-सुधोदय', 'श्रीचंडिकायजन', श्री जगन्निवास भट्ट ने 'त्रिपुर-सुन्दरी' और 'शिवार्चान्चंद्रिका सूची', तथा चक्रपाणि गोस्वामी ने 'पंचायतन-प्रकाश' के माध्यम से दर्शन, साहित्य, आयुर्वेद, शाक्तोपासना, पूर्वज-प्रशस्ति और तंत्र आदि २ अनेक विषयों पर लेखन किया।

शिवानन्द गोस्वामी ने पैंतीस से भी अधिक छोटे-बड़े संस्कृत-ग्रंथों की रचना की थी। चम्पू आदि को छोड़ कर इनकी अधिकांश रचनाएं ललित-पद्य (कविता) में निबद्ध हैं। ग्रंथों के विषय देखने से ज्ञात होता है शिवानन्द गोस्वामी तंत्र-मंत्र, साहित्य, काव्यशास्त्र, आयुर्वेद, सम्प्रदाय-ज्ञान, वेद-वेदांग, कर्मकांड, धर्मशास्त्र, खगोल-, होराशास्त्र, ज्योतिर्विज्ञान आदि अनेक विषयों के कितने गहरे विद्वान थे। 'सिंह सिद्धांत सिन्धु' की प्रथम दस 'तरंगों' के उद्धरण-ग्रंथों की सूची चेन्नई (मद्रास) में प्रकाशित है। (नीचे देखें-बाहरी कड़ियाँ)

वह मूलतः त्रिपुर-सुन्दरी (देवी) के अनन्य-साधक और शक्ति-उपासक थे। कहा जाता है-अपनी आराध्य-देवी के प्रति उनकी निष्ठा इतनी सघन थी कि माता स्वयं सशरीर उपस्थित हो कर उनसे संवाद करती थीं। कुछ इसी स्तर की अविचल और एकनिष्ठ साधना आधुनिक समय में रामकृष्ण परमहंस की भी थी| श्रीविद्या के माध्यम से शक्ति-उपासना की इस उत्कट प्रतिबद्धता के परिणामस्वरूप उन्हें काशी के पंडित समाज ने 'साक्षी-नाट्य-शिरोमणि' की संज्ञा भी दी।

पद्यबद्ध (काव्य के प्रारूप में) ज्ञान से भरी उनकी उपलब्ध २८ कृतियाँ इस प्रकार हैं :-

      1. सिंह-सिद्धांत-सिन्धु (सन १६७४ ईस्वी)
      2. सिंह-सिद्धांत-प्रदीपक
      3. सुबोध-रूपावली
      4. श्रीविद्यास्यपर्याक्रम-दर्पण
      5. विद्यार्चनदीपिका
      6. ललितार्चन-कौमुदी
      7. लक्ष्मीनारायणार्चा-कौमुदी
      8. लक्ष्मीनारायण-स्तुति
      9. सुभगोदय-दर्पण
      10. आचारसिन्धु
      11. प्रयाश्चित्तारणव-संकेत
      12. आन्हिकरत्न
      13. महाभारत-सुभाषित-श्लोक-संग्रह
      14. व्यवहारनिर्णय
      15. वैद्यरत्न
      16. मुहूर्तरत्न
      17. कालविवेक
      18. तिथिनिर्णय
      19. अमरकोशस्य बालबोधिनी टीका
      20. स्त्री-प्रत्ययकोश
      21. कारक-कोश
      22. समास-कोश
      23. शब्द्भेद्प्रकाश
      24. आख्यानवाद
      25. पदार्थतत्वनिरूपण
      26. नय-विवेक
      27. ईश्वरस्तुति
      28. कुलप्रदीप
      29. श्रीचंद्रपूजा-प्रयोग
      30. नित्यार्चन-कथन

इन सब ग्रंथों में 'सिंह-सिद्धांत-सिन्धु' वि.सं.१७३१ (सन १६७४ ई.) ऐसी कालजयी रचना है, जिसका अपने समकालीन-संस्कृत-ग्रंथों में कोई सानी नहीं है। इसमें रचे गए मौलिक श्लोकों की संख्या सर चकरा देने वाली है। सिंह-सिद्धांत-सिन्धु में कुल ३५,१३० संस्कृत श्लोक हैं जो श्रीमद्भागवत की कुल श्लोक संख्या से भी कहीं ज्यादा हैं। भागवत में 18 हजार श्लोक, 335 अध्याय तथा 12 स्कंध हैं। श्रीमद्भागवत महापुराण से बड़ा विपुल सन्दर्भ सामग्री से संयोजित संभवतया यह अपनी तरह का सबसे बड़ा ग्रन्थ है। श्रीमद्भागवत महापुराण और 'महाभारत' जैसे कालजयी ग्रन्थ, अनेकानेक ऋषियों-विद्वानों की संयुक्त सुदीर्घ लेखन-परम्परा का प्रतिफल हैं, क्योंकि वेदव्यास कोई एक व्यक्ति-विशेष का नाम नहीं, विभिन्न विद्वानों द्वारा समय-समय पर ग्रहण किया गया 'अकादमिक पद' (या चेयर) है) पर एक अकेले कृतिकार ने इतनी विशालकाय पाण्डुलिपि तैयार कर दी हो, ऐसा विलक्षण उदाहरण संस्कृत के साहित्यिक-इतिहास में मिलना दुर्लभ है| यह कृति अनूप संस्कृत लाइब्रेरी, बीकानेर में पाण्डुलिपि की प्रति होने के बावजूद विद्वानों की दृष्टि से अनेक वर्षों तक लुप्तप्राय रही और इसका प्रकाशन लेखन के प्रायः चार सौ साल बाद संभव हुआ पर सौभाग्य से यह अब सुलभ है। जोधपुर के राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान ने यह महारचना लक्ष्मीनारायण गोस्वामी के सम्पादन में 4 खण्डों में प्रकाशित की है। यह महाग्रंथ संस्कृत काव्य, तंत्रशास्त्र, मंत्रशास्त्र, न्याय, निगम, मीमांसा, सूत्र, आचार, ज्योतिष, वेद-वेदांग, व्याकरण, औषधिशास्त्र, आयुर्वेद, यज्ञ-विधि, कर्मकांड, धर्मशास्त्र होराशास्त्र न जाने कितनी विधाओं और विद्याओं का विलक्षण और विश्वसनीय विश्वकोश (एनसाइक्लोपीडिया) ही है।

इनकी कुछ रचनाओं की हस्तलिखित प्रतियाँ जयपुर के पोथीखाने में भी हैं जैसा इस सूची में अंकित है। यद्यपि प्रकाश परिमल जैसे अनुसंधानकर्ताओं ने शिवानन्द जी का जन्म विक्रम संवत १७१० अंकित किया है, तथापि उनकी लघु-पुस्तक में इस तथ्य के साक्ष्य का कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं होता। सच तो यह है इनका जन्म असल में किस साल, कहाँ हुआ यह शोध का विषय है। इस का कारण केवल यह है कि पुराने ज़माने में महान से महान लेखक तक अपने निजी-जीवन के बारे में कोई सूचना या जानकारी अपनी कृतियों में अक्सर नहीं देते थे। उस युग में पूर्णतः गुप्त या अविज्ञप्त रह कर उच्चस्तरीय मौन सारस्वत-साधना में लीन रहना ही शिवानन्द जी जैसी अनेक विद्वत-विभूतियों की आन्तरिक मनोप्रवृत्ति रही होगी।

ऐसा अनुमान बहुप्रचलित है कि अनेक नरेशों के सम्मानित कुलगुरु होने के बावजूद, अपना अंतिम समय गोस्वामीजी ने बीकानेर के महाराजा अनूपसिंह के आग्रह पर उनके साथ ही व्यतीत किया। पर शिवानन्द गोस्वामी का देहावसान कहाँ हुआ- दक्षिण भारत में कहीं, या बीकानेर में- यह शोध का विषय है। शिवानन्द गोस्वामी चंदेरी के गवर्नर (सूबेदार) देवीसिंह बुंदेला के समकालीन थे, जिन्होंने गोस्वामीजी से 'मंत्र-दीक्षा' लेकर भेंट में कुछ गांवों की जागीर बख्शी थी। इसी प्रकार ओरछा के सातवीं पीढ़ी के राजा देवीसिंह(1635-1641) ने भी इनकी विद्वत्ता से प्रभावित हो कर 4 ग्रामों की जागीर दी थी।

जयपुर राजा विष्णुसिंह ने सन १६९२-१६९४ ईस्वी में इन्हें रामजीपुरा (जिस पर आज जयपुर का मालवीय नगर बना है), हरिवंशपुरा, चिमनपुरा और महापुरा ग्रामों की जागीर भेंट की थी, जिसका प्रमाण जयपुर के पोथीखाना के अभिलेख में आज भी सुरक्षित है। महापुरा ग्राम आज तो जयपुर महानगर का ही भाग बन चुका है, जो जयपुर से १० किलोमीटर दूर अजमेर रोड पर स्थित है। महापुरा में गोस्वामी जी के और उनके भाई जनार्दन गोस्वामी के वंशज पीढ़ियों तक निवास करते रहे। यहीं शिवानंदजी के वंशज श्रीमद्भागवत के आचार्य गोपीकृष्ण गोस्वामी की सुपुत्री रामादेवी भट्ट से विख्यात संस्कृत साहित्यकार भट्ट मथुरानाथ शास्त्री का विवाह सन १९२२ में हुआ था। बीकानेर के महाराजा अनूप सिंह (१६६९-९८ ई.) द्वारा गोस्वामीजी को दो गांवों - पूलासर और चिलकोई की जागीर भेंट की गई थी। अपने जीवन के संध्याकाल में ये बीकानेर में ही रहे| संभवतः इनका देहावसान भी वहीं हुआ हो- किन्तु इनके अंतिम दिनों के बारे में कोई ऐतिहासिक सामग्री उपलब्ध नहीं होती।

प्रकाश परिमल ने अपने संक्षिप्त मोनोग्राफ में शिवानंदजी से सम्बद्ध एक आश्चर्यजनक घटना का उल्लेख कुछ इन शब्दों में किया है - ....जो महापुरुष अपनी अभूतपूर्व साधना के बल पर प्रसिद्धि प्राप्त करते हैं, उनके प्रति ईर्ष्या-विद्वेष, ऐसे व्यक्तियों में जाग्रत होना अत्यंत स्वाभाविक है, जो अन्यथा राज्याश्रय में अपनी गरिमा और प्रभुत्व बनाये रख सकते थे। यद्यपि शिवानन्द गोस्वामी ओरछा में एक वनखंडी में अपना अलग आश्रम बना कर साधना में लीन रहते और दिन-रात अध्यवसाय में ही व्यतीत करते थे, तथापि (राजा) देवीसिंह के दरबारी विद्वान् उनके विरुद्ध अनेक प्रकार के प्रवाद उनकी अनुपस्थिति में बना कर राजा के कान भरते रहते थे। यह बात तो सर्वविदित थी कि ओरछा या बुंदेलों के इष्ट देवता, भगवान राम थे और इसी कारण इस क्षेत्र में अनेक राम और हनुमान मंदिरों की स्थापना भी हुई है, वैसे ओरछा में ही बुंदेलों के इष्ट हनुमानजी का एक मंदिर आज भी है। यह (हनुमान) मंदिर शिवानन्दजी के आश्रम और देवीसिंह के महलों के बीच पड़ता था। शिवानन्द के विद्वेशियों ने राजा से यह शिकायत कर दी कि बुंदेलखंड के इष्टदेवता का मंदिर रास्ते में होते हुए भी आपके गुरु, (आपके) इष्टदेव को कभी प्रणाम नहीं करते। स्वयं राजा देवीसिंह ने जब यही बात इनके सामने रखी तो इन्होने विनोद में इतना ही कह कर टाल दिया कि "यह मामला व्यक्तिगत श्रद्धाभाव का है और चूंकि में अहर्निश देवी के भाव में ही लीन रहता हूँ, इसलिए 'अन्य' भाव में जाने से इसमें मेरा और आपका अनिष्ट ही होगा! वैसे भी सब देवता भगवान के ही रूप हैं।.. " इनके उत्तर से राजा कदाचित पूरी तरह संतुष्ट नहीं हो सका। इसलिए एक बार जब वे दोनों उसी हनुमान मंदिर के मार्ग से आ रहे थे, राजा ने अपने इष्ट हनुमान को प्रणाम करने की आग्रहभरी विनती कर ही डाली। कहते हैं- जैसे ही शक्ति के परम आराधक शिवानंदजी ने अपने हाथ प्रणाम हेतु उठाए, उससे पूर्व ही हनुमानजी की मूर्ति में पत्थर फटने की आवाज़ के साथ ऊपर से नीचे तक एक गहरी दरार पड गयी। राजा इस चमत्कार से बहुत भयभीत हो गया। और तब से उसके मन में आद्याशक्ति के प्रति भी गहरी निष्ठा जाग्रत हो गयी। ओरछा में हनुमान मंदिर में आज भी वह गहरी दरार देखी जा सकती है। इस प्रसंग के बाद शिवानन्द गोस्वामी का मन दरबार में विद्वेशियों और चमत्कार के बल पर ही श्रद्धा रखने वाले धर्मप्राण राजन्यों के प्रति कुछ असम्प्रक्त हो गया। उन्होंने "संक्षेप-प्रायश्चित्त" और "व्यवहार-निर्णय" जैसे ग्रन्थ लिख कर अपने इष्ट के समक्ष प्रायश्चित्त किया।"

औरंगजेब शासन के दौरान आमेर के राज्य पर आये राजनैतिक-संकटों के निवारण के लिए जयपुर के तत्कालीन पंडितों ने महाराजा विष्णुसिंह को नगर में शांति बनाये रखने के लिए 'वाजपेय-यज्ञ' करवाने का मशविरा दिया था। तब काशी और मिथिला के कुछ पंडित अपनी साधना और सिद्धियों के लिए बहुत प्रसिद्ध थे। आमेर के नरेश ने उन्हें ही इस काम के लिए जयपुर आमंत्रित किया। किन्तु दुर्योग से जब-जब भी उस राजसी वाजपेय-यज्ञ में पूर्णाहुति की वेला आती, यज्ञकर्ता पुरोहित की आकस्मिक मृत्यु हो जाती। ऐसा एक बार नहीं, कई बार हुआ। एक के बाद एक काशी-मिथिला के पांच सिद्ध पुरोहित यज्ञ पूरा कराने से पूर्व ही काल-कवलित हो गए। ऐसे विकट अपशकुन को देख कर राजा ने बीकानेर नरेश अनूपसिंह के माध्यम से ओरछा महाराज को यह संदेश भिजवाया कि वे कृपा कर उनके कुलगुरु और महान तांत्रिक शिवानंदजी को जयपुर भिजवाएं ताकि वह वाजपेय-यज्ञ की पूर्णाहुति करवा सकें। अंततः शिवानन्द गोस्वामी, सन १६८० ईस्वी में आमेर पहुंचे और जलमहल के पास उन्होंने जयपुर नरेश का वाजपेय-यज्ञ निर्विघ्न पूरा करवाया। पूर्णाहुति से एक रात पहले, कहते हैं एक विकट ब्रह्मराक्षस स्वप्न में गोस्वामीजी के सामने उपस्थित हुआ- जिसने उनसे शास्त्रार्थ करने की चुनौती इस सूचना के साथ दी कि पहले के पांच काशी-पंडित शास्त्रार्थ में उससे पराजित हो कर ही उसका ग्रास बन चुके थे। गोस्वामीजी ने ब्रह्मराक्षस की इस चुनौती को स्वीकार किया और उसे शास्त्रार्थ में हरा कर वाजपेय-यज्ञ पूर्णाहुति के साथ विधिवत संपन्न कराया।

जलमहल, आमेर रोड, जयपुर, जहाँ महाराजा बिशनसिंह के वाजपेय-यज्ञ की पूर्णाहुति गोस्वामीजी ने करवाई पर राजा द्वारा इस तथ्य को छिपाने के लिए कि पहले के पांच काशी-पंडित शास्त्रार्थ में ब्रह्मराक्षस से पराजित हो कर उसका निवाला बन चुके थे, खिन्न शिवानंदजी, आमेर महाराजा से बिना दान-दक्षिणा लिए आमेर से महापुरा लौट आये। कहते हैं जब महाराजा विष्णुसिंह को शिवानन्दजी की नाराजगी की भनक लगी तो उन्हें मनाने खुद वह अपने पुत्र सवाई जयसिंह के साथ महापुरा पहुंचे। शिवानंदजी ने सवाई जयसिंह के बारे में कुछ बेहद सटीक भविष्यवाणियां करते हुए महाराजा को निर्देश दिया कि ब्रह्मराक्षस की 'प्रेतमुक्ति' के लिए वह किसी जाने-माने कर्मकांडी पंडित को गया और काशी भिजवाएं। उन्होंने किंचित अप्रसन्नतापूर्वक महाराजा को पांच-पंडितों के वध का उत्तरदायी मानते, उन्हें कई प्राचीन शास्त्रों का हवाला देते हुए प्रयाश्चित्त्स्वरूप अश्वमेध यज्ञ करवाने की सलाह भी तभी दी होगी। निर्दोष ब्राह्मणों की मृत्यु से व्यथित होने के कारण उन्होंने महाराजा के सामने महापुरा में और रहने में अनिच्छा भी बड़ी विनम्रता से प्रकट की। अंततः अपने छोटे भाई [जनार्दन भट्ट] के पास पांच गांवों की जागीर और अकूत-संपत्ति का परित्याग कर गोस्वामीजी कुछ समय बाद बीकानेर के राजगुरु के रूप में महाराजा अनूपसिंह के यहाँ चले गए"- जिनका बीकानेर कुलगुरु-राजगुरु होने का आमंत्रण/अनुरोध कब से इनके पास लंबित था।

यह शुभ है कि छह सौ साल बाद भी शिवानन्द गोस्वामी की प्राचीन साहित्यिक रचना-परंपरा उत्तर भारत के प्रवासी आन्ध्र आत्रेय परिवारों में आज भी निर्बाध निरंतर जारी है। कलानाथ शास्त्री एवं घनश्याम गोस्वामी और पंडित कंठमणि शास्त्री ने शिवानंदजी के बाद की पीढी के विद्वान तैलंग ब्राह्मणों द्वारा समय-समय पर लिखे संस्कृत/ वृजभाषा ग्रंथों की सूची प्रकाशित की है, जिसमें श्री निकेतन जी की 'आर्यासप्तशती, चक्रपाणि भट्ट की 'पंचायतन-प्रकाश' रमणजी (राधारमण गोस्वामी) की कृति 'वंशावली', कन्हैयालालजी की पुस्तक 'कनिष्ठ पूर्णाभिषेक स्तोत्र', ईश्वरीदत्त के ३१ ग्रन्थ और जनार्दन गोस्वामी, आनंदी देवी, देवीदत्त गोस्वामी, मंडन कवि, पद्माकर, गदाधर भट्ट, रामप्रसाद भट्ट 'प्रभाकर', लक्ष्मीधर भट्ट'श्रीधर', बंशीधर भट्ट, अम्बुज भट्ट, मिहीलाल, गौरीशंकर सुधाकर, गोविन्द कवीश्वर, गुरु कमलाकर 'कमल' भालचंद्र राव जैसे अनेक विद्वानों की पुस्तकें शामिल हैं। इसी आत्रेय वंश में जन्मे रीतिकाल के यशस्वी महाकवि पद्माकर का नाम किसने नहीं सुना?

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