धर्माधिराज का ज्येष्ठ बनूँ?
भारत में सबसे श्रेष्ठ बनूँ?
कुल की पोशाक पहन करके,
सिर उठा चलूँ कुछ तन करके?
इस झूठ-मूठ में रस क्या है?
केशव! यह सुयश सुयश क्या है?
सिर पर कुलीनता का टीका,
भीतर जीवन का रस फीका,
अपना न नाम जो ले सकते,
परिचय न तेज से दे सकते ,
ऐसे भी कुछ नर होते हैं,
कुल को खाते, ‘औ’ खोते हैं।
विक्रमी पुरुष लेकिन, सिर पर,
चलता न छत्र पुरखों का घर।
अपना बल-तेज जगाता है,
सम्मान जगत से पाता है।
उसे देख ललचाते हैं,
कर विविध यत्न अपनाते हैं।
कुल-गोत्र नहीं समाधान मेरा,
पुरुषार्थ एक बस धन मेरा,
कुल ने तो मुझको फेंक दिया,
मैंने हिम्मत से काम लिया।
अब वंश चकित भरमाया है,
खुद मुझको खोजने आया है।
मैत्री की बड़ी सुखद छाया,
शीतल हो जाती है काया,
धिक्कार योग्य होगा वह नर
जो पाकर भी ऐसा तरुवर,
हो अलग खड़ा कटवाता है,
खुद आप नहीं कट जाता है।