जब भी याद आता है वह विशाल दीर्घायु वृक्ष
याद आते हैं उपनिषद्, याद आती
एक स्वच्छ सरल जीवन शैली।
उसकी सदा शांत छाया में, वह एक
विचित्र-सी उदार गुणवत्ता,
जो गर्मी में शीतलता देती और जाड़ों में गर्माहट।
याद आती एक तीखी,
पर मित्र-सी सोंधी खुशबू,
जैसे बाबा का स्वभाव।
याद आती पेड़ के नीचे सबसे लिए
हमेशा पड़ी रहने वाली दो-चार खाटे,
निबौरियों से खेलता बचपन.......
याद आता नीम के नीचे रखे
पिता के पार्थिव शरीर पर
सकुचाते फूलों का वह बीतराग झरना
जैसे माँ के बालों से झर रहे हों-
नन्हें-नन्हें फूल जो आँसू नहीं,
सांत्वना लगते थे।
कड़वी-मीठी औषधियाँ गंध से
भर उठता था घर,
जब आँगन के नीम में फूल आते।
साबुन के बुलबुलों से
हवा में उड़ते हुए सफेद छोटे-छोटे फूल,
दो-एक माँ के बालों में उलझे रह जाते,
जब भी तुलसी घर पर जल चढ़ाकर आँगन में लौटती।
अजीब-सी बात है मैंने ऊन फूलों को
जब भी सोचा,
बहुवचन में सोचा।
उन्हें कुम्हलाते नहीं देखा,
रंगारंग खिलते भी नहीं देखा।
जैसे गुलमोहर या कचनार,
पर कुछ था उनके झरने में, खिलने से भी अधिक
शालीन और गरिमामय,
जो न हर्ष था, न विषाद।