वह - कविता

वह हर दिन आता, सोचता बडबडाता, घबडाता
कभी मस्त होकर प्रफुल्लता, कोमलता से सुमधुर गाता,

न भूख से ही आकुल, न ही दुःख से व्याकुल
महान वैचारक धैर्य का परिचायक

विकट संवेदनाएँ, गंभीर विडंबनाएँ
कुछ सूझते ध्यान में पद, संभलता, बढाता पग!

होकर एक दिन विस्मित्, किछ दया दूँ अकिंचित्
इससे पहले ही सोचकर…, कहा, जाने क्या संभलकर

लुटती, टुटती ह्रदय दीनों की, नष्ट होती स्वत्व संपदा सारी
मुझे क्या कुछ देगी, ये व्यस्त, अभ्यस्त दुनिया भिखारी!

लुट चुके अन्यान्य साधन, टुट चुके सभ्य संसाधन
आज जल भी 'जल' रहा है, ये प्राणवायु भी क्या रहा है?

Vah Har Din Aata Hindi Rhymes
Advertisement

आपदा की भेंट से संकुचित, विपदा की ओट से कुंठित
वायु - जल ही एक बची है, उस पर भी टूट मची है।

ह्रदय की वेदनाएँ, चिंतित चेतनाएँ
बाध्य करती 'गरल' पीने को, हो मस्त 'सरल' जीने को

करता हुँ सत्कार, हर महानता है स्वीकार;
पर, दुःखित है विचार, न चाहिए किसी से उपकार।

दया-धर्म की बात है, किस कर्म की यह घात है
'उर' विच्छेद कर विभूति लाते; 'जन' क्यों ऐसी सहानुभूति दिखाते?

हर गये जीवन के हर विकल्प, रह गये अंतिम सत्य-संकल्प!
लेता प्रकृति के वायु-जल, नहीं विशुद्ध न ही निश्छल

न हार की ही चाहत, न जीत की है आहट
विचारों में खोता, घंटों ना सोता

अचानक- तनिक सी चिल्लाहट, अधरों की मुस्कुराहट
न सुख की है आशा, न दुःख की निराशा

समय-समय की कहानी, नहीं कहता निज वाणी,
अब हो चुके दुःखित बहु प्राणी; होती पल-पल की हानी।

न जाने कब की मिट चुकी आकांक्षाएँ, साथ ही संपदाएँ और विपदाएँ।
दुनिया ने हटा दी - अस्तित्व ही मिटा दी

सोचा! कुछ करूँ, जिऊँ या मरूँ?
कुछ सोच कर संभला था, लेकिन बहुत कष्ट मिला था…

कारूणिक दृश्य देखकर, ह्रदय से विचार कर
कहा - "भाग्य-विधाता", निर्धन को दाता

मुझे ना कुछ चाहिए, पर व्रती, धन्य
अनाथों को क्यों सताता?

यह सुनकर मैं बोला - स्तब्धित मुख को खोला
ये अब दुनिया की रीत है, स्वार्थ भर की प्रीत है

समझते 'जन' जिसे अभिन्न, वही करते ह्रदय विछिन्न!
नहीं जग महात्माओं को पुजता, वीरों को भला अब कौन पुछता

पीडितों के प्राण हित - मैं भी प्रतिपल जिया करता हूँ
'उर' में 'गरल' पीया करता हूँ!

अंतर्द्वन्द से क्षणिक देख,
पहचान! जान सुरत निरेख!

अखंड भारत अमर रहे!

© कवि आलोक पान्डेय

Advertisement
Advertisement

Related Post

Categories